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विश्व पर्यावरण दिवस आज…:हम 4 ऐसी कहानियां बता रहे हैं, जिनके जरिए जंगल बढ़ने के साथ बढ़ रहा ग्रीन एरिया​​​​​​​

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Acn18.com/छत्तीसगढ़ के 44.2% (59816 वर्ग किमी) हिस्से में जंगल है। 11,185 गांव अभी भी जंगल के भीतर हैं। फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया के अनुसार 106 वर्ग किमी फॉरेस्ट व हरियाली बढ़ी है। सरकारी प्रयास… प्रदेश में जंगलों की सुरक्षा 7887 वन प्रबंधन समितियां कर रही हैं। इसके साथ ही शहरों-कस्बों में पौधों की सुरक्षा करने ट्री कवर 2019 की तुलना में 1107 वर्ग किमी बढ़ाए गए हैं। पेसा कानून के तहत जंगलों की सुरक्षा की योजना ग्राम सभाओं में तैयार होगी। कैंपा के माध्यम से भू-जल स्तर बढ़ाने 6 हजार से ज्यादा नालों में पानी संरक्षित रखा जा रहा।

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ऐसा स्कूल जहां फीस में पैसा नहीं पौधा लिया जाता है, 8 साल में 58 हजार लगाए

छत्तीसगढ़ में 40 हजार से ज्यादा निजी और सरकारी स्कूल हैं। इसमें एक ऐसा निजी स्कूल भी है, जहां बच्चों से एडमिशन के दौरान फीस में पैसा नहीं लिया जाता है। बच्चों से दो पौधे लिए जाते हैं। परिजनों से शपथ पत्र लिया जाता है कि अपने बच्चों की तरह इन पौधों की देखरेख करेंगे। बच्चों को यहां शिक्षा-दीक्षा के साथ पर्यावरण संरक्षण के बारे में बताया जाता है। पेड़-पौधों की जानकारी दी जाती है।

स्कूल के प्रयास और बच्चों के सहयोग से पिछले 8 साल में मड़वा पहाड़ में 58 हजार से ज्यादा पौधे लगाए गए हैं, जो अब पेड़ हो गए हैं। हर साल दूसरे स्कूल के छात्र-छात्राएं, एनसीसी, एनएसएस, स्काउट एंड गाइड के बच्चे आते हैं और अपने नाम से पौधा लगाते हैं। उन पौधों को सौरभ कुमार, वीरेंद्र प्रताप, अमित कुमार जैसे छात्रों के नाम से जाना जाता है।

अंबिकापुर के अमित सिंह, मनोज सोनी, कंचन लता समेत अन्य लोगों ने मिलकर शिक्षा कुटीर संस्था बनाया है। इस संस्था ने 2015 में मैनपाट के पास बरगई में एक प्राइमरी स्कूल शुरू किया है, जहां फीस में पैसा की जगह पौधा लिया जाता है। एक छात्र को दो पौधा देना होता है। पहले स्कूल में 24 बच्चों ने दाखिला लिया। फिर संख्या बढ़ती गई।

हालांकि कोरोना के बाद बच्चे कम हुए। लेकिन संस्था ने हिम्मत नहीं हारी। बंजर हो चुकी 250 हेक्टेयर में फैले मड़वारानी को हराभरा करने का फैसला लिया।इसमें गांव वालों के साथ दूसरे स्कूल को भी जोड़ा। पहाड़ के 50 हेक्टेयर जगह में 58 हजार पौधे लगाए है। इनकी देखरेख के लिए कर्मचारी भी रखे है। आपसी सहयोग ने स्कूल शिक्षक और कर्मचारियों का वेतन दिया जाता है। स्कूल में बच्चों को फ्री में किताब, कॉपी, ड्रेस व जूता दिया जाता है।

किचन गार्डन से मध्यान्ह भोजन स्कूल परिसर में अब किचन गार्डन किया जाएगा। इसकी देखरेख भी बच्चे करेंगे। इससे जो सब्जियां पैदा होगी। उससे मध्यान्ह भोजन बनाया जाएगा। यह पूरी तरह जैविक होगा।

चिमनी के धुएं के बीच 116 एकड़ के जंगल से राहत

राजधानी रायपुर के सिलतरा का नाम सुनते ही काला धुआं, प्रदूषण, धूल और इसी तरह की चीजें नजरों में घूमने लगती है। लेकिन इन सबके बीच इंडस्ट्रियल एरिया के फेस-1 आैर फेस-2 में 116 एकड़ का एक ऐसा ऑक्सीजन विकसित किया गया है जहां भीतर घुसते ही किसी जंगल में प्रवेश करने का अहसास होता है। हीरा ग्रुप के डायरेक्टर दिनेश अग्रवाल की इसी सोच का परिणाम है 70 हजार पेड़ों से सुसज्जित यह ग्रीन बेल्ट। उन्होंने बताया कि 2016-17 में जब चिन्हांकित स्थल पर पेड़ लगाना शुरू किया तो शुरू में शरारती लोगों ने उसे पूरी तरह नष्ट कर दिया। लेकिन ग्रीन बेल्ट बनाना था इसलिए फिर जुटे आैर फिर उसे जी-जान से विकसित करने में लग गए। इसी का परिणाम है कि आज यह पूरा इलाका हरा-भरा हो गया है।

यहां सिंचाई के लिए दो बड़े तालाब और आधा दर्जन से ज्यादा छोटे-छोटे पौंड बनाए गए हैं ताकि जमीन की नमी भी बनी रहे और सिंचाई के लिए पानी भी मिलती रहे।

50 एकड़ की पहाड़ी में ग्रामीण कर रहे श्रमदान

रायपुर से करीब 106 किलोमीटर महासमुंद जिले के बागबाहरा ब्लॉक में स्थित है ग्राम कसेकरा। 5 हजार आबादी वाले इस गांव के ग्रामीण पर्यावरण को लेकर इतने सजग हैं कि करीब 50 एकड़ क्षेत्रफल में फैले पहाड़ी को हराभरा करने का संकल्प लेकर रोज श्रमदान करने में जुटे हैं। रविवार को भी ऐसा ही हुआ। रोज की तरह सुबह 7 बजे लाउड स्पीकर से होने वाली मुनादी की पहली आवाज आई- रूपई माता की जय हो। श्रमदान का समय हो चुका है। हमें रूपई माता को बचाना है, पर्यावरण को बचाना है, जल, जंगल और जमीन को बचाना है।

मुनादी सुनते ही एक के बाद एक कर ग्रामीण पहाड़ी के नीचे जमा होने हैं। कुछ देर बाद ही संख्या 100 के पार हो गई। इस भीड़ में पुरुषों और युवाओं के साथ महिलाएं, बुजुर्ग और बच्चे भी शामिल हैं। देखते ही देखते पहाड़ी पर करीब 80 फीट ऊंची मानव श्रृंखला बन गई।

हाथ से हाथ बढ़ने लगे और पहाड़ी पर चटाई बिछाने से लेकर, कंटाई-छंटाई का काम शुरू हो गया। फिर अलग-अलग हिस्सों में इमली, बेर और बाकी पौधों के बीच से बनी सीड बॉल पहाड़ी के बीच की दरार और होल में डालने का क्रम शुरू हुआ।

काम में जुटे बुजुर्ग नेमीचंद से लेकर नील सिंग, दलेश्वरी, ललिता, कुमार, परमिला, ठाकुर राम ने बताया कि सरजी… पहाड़, जल, जंगल और जमीन ही तो है, जिसे हमें हर हाल में बचाना है। इसके बिना जीवन अधूरा है। सरपंच ईश्वरी डिगेश्वर दीवान ने कहा जंगल नहीं बचेंगे तो हम भी नहीं बचेंगे।

इसीलिए तो हमने तीन साल पहले पहाड़ी को हरा-भरा करने का संकल्प लिया है। कसेकेरा गांव रूपई पहाड़ी के ठीक नीचे बसा है। नीलकंठ, महेश, बिसाहु, संतोष और रोहित बताते हैं कि पथरीली चट्टान होने के कारण यहां प्रचंड गर्मी पड़ती है। मार्च महीने से ही गर्मी का प्रकोप शुरू हो जाता है। इसी के बचने के लिए हमने पहाड़ी को हरा-भरा करने की ठानी है।

पहाड़ी पर हरियाली के लिए चटाई विधि का प्रयोग: स्कूल के प्रिंसिपल डॉ विजय शर्मा बताते हैं कि हम चटाई विधि का प्रयोग कर रहे हैं। पहाड़ में जहां भी छेद, खोल या गैप है, उसे जूट के बोरे, नारियल के रेश और कागज के पुट्ठे से भरा जाता है।

बारिश के दिनों में ये भीगते हैं और इसमें फंगस तैयार होता है। ये पहाड़ी पर फैलते हैं और धूल चिपकने से यह एक तरह से मिट्टी की परत के रूप में तैयार हो जाते हैं। धीरे-धीरे इसमें पौधे, घास उगने लगती है। पहाड़ी के गैप या खोल में बीजों का सीड बॉल डाला जाता है, जो पौधे के रूप में तैयार होता है।

बीजाभाठा गांव को दो नन्हें हाथ कर रहे हराभरा

शुरुआत बहुत मुश्किल होती है और भीड़ कभी कोई शुरुआत नहीं करती। इस भीड़ के भीतर ही कोई होता है, जो अकेले से शुरू करता है। ऐसी ही भीड़ के आखिरी पायदान पर खड़े दो भाई युवराज और योगेश ने शुरुआत की और आज भीड़ से आगे निकल गए।

पाटन विकासखंड के गांव बीजाभाठ के आठ सौ से ज्यादा ग्रामीण पेड़ों की अ‌वैध कटाई से परेशान थे। चौपाल में या तालाब किनारे जब कभी भी गांव की भीड़ जुटती दर्जनभर गाल पेड़ों की इस अवैध कटाई के खिलाफ बज उठते थे। पहल कभी किसी से नहीं हुई। तब भीड़ का हिस्सा रहे 14 व 11 साल के युवराज और योगेश ने पेड़ों की कटाई से वस्त्रहीन हुए गांव को फिर से हरा-भरा करने की पहल की।

दोनों ने अपने छोटे-छोटे हाथों से गांव के तालाब के किनारे आम और अमरूद के दो पौधे लगाए। रोज पानी देते। सुबह-शाम जाकर उनसे बातें करते खेलते और कभी-कभी पौधों के पास बोरा बिछाकर सो भी जाते। पांच साल पहले उनके अपने खुद के विकसित इस परिवार में आम और अमरूद ही नहीं कई और पौधे भी शामिल हो गए। आज ये काफी बड़े हो गए हैं। उनके कुनबे में आज 50 से ज्यादा पौधे सदस्य बन चुके हैं।

युवराज और योगेश की यह कहानी सिर्फ समस्या पर भीड़ बनकर चर्चा करने वालों की नहीं है। बल्कि भीड़ से निकलकर पहल करने वाले साहस की है। यूं कहा भी जाता है कि अक्सर छोटे से कलेजे में ही समस्या को दूर करने वाले बड़े सपने धड़कते हैं।

इन्हीं सपनों के साथ दोनों बच्चे गांव को हरा-भरा करने में जुटे हैं। पहले-पहल तो परिवार वालों ने बच्चों की इस हरकत को नादान उम्र की सनक समझी। फिर पौधे लगाने और उनकी देखभाल करने का समर्पित भाव देखकर घरवाले सोचने पर मजबूर हो गए कि यह महज कुछ दिन चलने वाला बच्चों का खेल नहीं है।

तब पिता भरत साहू, मां गायत्री और दादा श्याम लाल भी मदद करने लगे हैं। पूरे गांव में अब इनका परिवार वृक्ष मित्र के रूप में पहचाना जा रहा है। युवराज और योगेश भी इन पांच सालों में बड़े हो गए हैं। अब गांव के उन जैसे युवाओं की टोली भी इस मुहिम में शामिल होने लगी है।

तालाब के किनारे 50 बाई 20 वर्गमीटर क्षेत्र को दोनों ने मिलकर हराभरा कर दिया है। यहां आम, अमरूद, जामुन, कटहल, नारियल, काजू, नीबू, बोहार भाजी, बेल, मुनगा आदि के पेड़ हैं। आसपास गुलमोहर के भी पौधे लगाए हैं, जो अब काफी बड़े हो गए।

बुआ की प्रेरणा काम आई
युवराज और योगेश ने बताया कि आठ-दस सालों में लकड़ी के लिए गांव में सैकड़ों पेड़ काट दिए। हरा-भरा रहने वाले गांव में आज पेड़ उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। तीज के वक्त बुआ शिवकुमारी जब घर आती तो उनके साथ इन्हीं सब किस्से-कहानियों को लेकर चर्चा होती थी। वह बड़े ही उत्साह से बताती थी कि गांव में पहले काफी हरियाली थी। ये बाते धीरे-धीरे मन में घर करती गईं। फिर मन के भीतर हरियाली को लेकर कुछ करने की इच्छा होने लगती थी। एक दिन दो पौधों से शुरुआत कर ही डाली। वे कहते हैं हम चाहते हैं कि गांव का हर परिवार और उसमें रहने वाला हर व्यक्ति अपने आसपास में सिर्फ पांच पेड़ लगाए और उसे संरक्षित कर ले तो बीजाभाठा जैसा एक गांव नहीं, एक पाटन जिला नहीं बल्कि पूरा छत्तीसगढ़ हराभरा हो जाएगा।

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