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पूरब, पश्चिम और उत्तर का सांस्कृतिक महामिलन है कुमाऊंनी होली, काली कुमाऊं से हुई शुरुआत

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acn18.com अल्‍मोड़ा: Holi 2023: आर्यों के हृदय प्रदेश देवभूमि की कुमाऊंनी होली यूं ही विशिष्ट और अनूठी नहीं है। यहां की गायन शैली में ब्रह्मर्षि देश (वर्तमान उत्तर प्रदेश) के पूरब, पश्चिम और उत्तर का बेजोड़ सांस्कृतिक समागम इसे सबसे जुदा बना देता है। पौष के प्रथम रविवार से फाल्गुन की कृष्ण पूर्णिमा तक अवधी, ब्रज और हिमालयी संस्कृति व भाषाबोली का ऐसा अद्भुत महामिलन देवभूमि में ही दिखता है।

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शिव भी फाल्गुनी रंग में रंगने से खुद को रोक नहीं पाते

अवध में रघुनंदन होरी खेलते हैं, ब्रजधाम में कन्हैया तो हिमालयी वादियों में उत्तराखंड के अराध्य कैलासवासी शिव भी फाल्गुनी रंग में रंगने से खुद को रोक नहीं पाते। वहीं गिरजापति नंदन गजानन का अद्भुत वंदन होता है।

अवधी में रचीबसी राम की नगरी और शोरसेनी (ब्रज) बोली से लबरेज कृष्ण की मायानगरी से देवाधिदेव की जटाओं से हिलोरी लेती गंगा जमुनी सभ्यता वाले प्रयागराज तथा काशी की रागरागिनियों में लिपटी शब्दयात्रा देवभूमि में पहुंचते ही समूचे उत्तर भारत की मिश्रित गायनशैली का अलौकिक केंद्र बन जाती है।

खास बात कि सिया राम, राधा कृष्ण, उमा महेश व गणपति के फाल्गुनी बयार में रमते ही शक्ति की प्रतीक मां भगवती का दरबार भी भक्तिरस से अभिभोर हो उठता है।

तो आइए आपको ले चलते हैं प्रकृति पुरुष शिव और पालनहार भगवान विष्णु के कूर्मावतार वाले उस रंग बिरंगे कुमाऊं की सैर पर जहां अबीर गुलाल की रंगत में भक्तिरस से शुरू बैठकी होली और फिर खड़ी  होली विदाई लेते लेते विशुद्ध भारतीय शास्त्रीय रागों व छंदों से सजी प्रेम, हास्य व श्रृंगाररस में तर हो जाती है।

आर्यों की अग्निहोत्र परंपरा है होली उत्सव

होली की शुरूआत कुमाऊं में कब हुई, यह आज भी शोध का विषय है। मगर धार्मिक कथाओं व लोकगाथाओं की ओर ध्यान लगाएं तो आर्यों की अग्निहोत्र परंपरा होली उत्सव के सदियों पुराना होने की गवाही देती है। ‘सर्वे भवंतु सुखिन:…’ का भाव लिए सामाजिक समरसता, मेलमिलाप और मेलजोल बढ़ाने की यह अनूठी संस्कृति आर्यों की अग्निहोत्र परंपरा का अभिन्न हिस्सा रही है।

जहां तक उत्तराखंड में कुमाऊंनी होली गायन और उसकी शैली का सवाल है तो अवधी व ब्रज बोली का सुंदर समावेश इसके इतिहास को रोचक बना देता है। काली कुमाऊं (वर्तमान चंपावत) कुमाऊंनी होली गायन का मुख्य प्रसार केंद्र रहा है।

कुमाऊंनी होली पर अध्ययन कर संकलन तैयार कर चुके रचनाकार शिवदत्त पेटशाली के अनुसार सूर्यवंशी व चंदराजवंश ने उत्तराखंड में विस्तार लिया तो अवध, प्रयागराज, काशी, ब्रजधाम, मथुरा आदि क्षेत्रों के गायक, रचनाकार व प्रकांड पंडितों ने भी यहां का रुख किया।

राजदरबार या मंदिरों में सुरसंगीत की लहरियां गूंजती थीं। फाल्गुन में तो बरसाने का जिक्र, कृष्ण की लीलाओं और अयोध्या में प्रभु राम की महिमा में लिपटे होली गीत विशुद्ध शास्त्रीय रागों पर गाए जाते थे।

चंदवंशी राजाओं ने पूरब, पश्चिम व उत्तर की मिलीजुली बोली में होली गायन की अनूठी शैली को न केवल प्रोत्साहित किया बल्कि विशुद्ध अवधी व ब्रज की मिश्रित बोली में गाई जाने वाली कुमाऊंनी होली को भारतवर्ष में नई पहचान दिलाने में अतुलनीय योगदान दिया। इसकी झलक आज भी मिलती है।

काली कुमाऊं चंपावत से कुमाऊंनी होली का उदय

चंद राजवंश ने अपनी राजधानी चंपावत से अल्मोड़ा स्थानांतरित की तो शास्त्रीय संगीत के माहिर, शौकीन व गायक भी साथ आए। धीरे-धीरे चंद राजाओं की राजधानी अल्मोड़ा ने काशी, कश्मीर, बोधगया, अवध आदि के प्रकांड विद्वानों के बीच शास्त्रार्थ के साथ गीत संगीत की महफिलों के रूप में पहचान बना ली।

कुमाऊंनी होली गीतों के मर्मज्ञ एवं साहित्यकार जुगलकिशोर पेटशाली कहते हैं कि चंद राजवंश के पुरोहित मंडल में शुमार सतराली (ताकुला ब्लाक) गांव में करीब 500 वर्ष पूर्व संगीत के शौकीन राजपुरोहितों ने विशुद्ध कुमाऊंनी बोली यानि आंचलिक बोली में होली गायन की परंपरा का श्रीगणेश किया।

माना जाता है कि लोहनी (पहले लाहुमी) परिवार के संगीतज्ञों ने इस शैली के प्रचलन की शुरूआत की। सतराली से ही कुमाऊंनी होली जिला मुख्यालय के करीबी गांवों तक पहुंची। अल्मोड़ा नगर से लगा समीपवर्ती शैल गांव तो होली गायिकी की साधना स्थली ही बन गया।

बाद में अल्मोड़ा इसका मुख्य केंद्र बना। यहीं से सोमनाथ नगरी यानि संपूर्ण बौरारौ घाटी (सोमेश्वर), बागेश्वर, रानीखेत, द्वाराहाट, चौखुटिया, स्याल्दे, सल्ट समेत पूरे पालीपछाऊं परगने में कुमाऊंनी होली की गायनशैली रग रग में बस गई। इसी अवधि में यह गायनशैली नैनीताल जिले के गांव-गांव तक पहुंची।

होली गायक बृजेंद्र लाल साह, मोहन उप्रेती, प्रेम मटियानी आदि ने कुमाऊंनी होली को नया सुर दिया तो पंडित और साह घरानों ने कुमाऊंनी होली और इसकी गायनशैली को जीवंत रखा है। हालांकि ब्रज व अवधी पुट अब भी बना हुआ है।

भक्तिरस से प्रेम व श्रृंगार की मादकता तक

कुमाऊंनी होली कुमाऊं की अनमोल सांस्कृतिक विरासतों में एक है। फाल्गुनी रंग में रंगी वासंती मादकता से सराबोर पर्वतीय आभा देशभर में बेजोड़ है। पक्के रागों में आबद्ध यहां की बैठकी होली और विभिन्न धुनों पर थिरकने को मजबूर कर देती खड़ी होली इसे और भी मनोहारी बना देती है।

कुमाऊंनी बोली में इसका गायन इसे और विशिष्टता प्रदान करता है। ब्रज, अवधी व आंचलिक बोली मिश्रित यह होली अपने आप में अनूठी है। बरसाने की भांति कुमाऊं में भी बैठकी होली का दौर पौष में श्रीणेश जबकि रंगोत्सव का शुभारंभ फाल्गुन शुक्ल पक्ष की एकादशी को होता है।

ब्रज की ही तरह पहाड़ में होली तीन चरणों में होती है। मसलन, पहले दो चरण भक्तिरस प्रधान तो तीसरी खड़ी होली में भक्ति व प्रेमरस के साथ श्रृंगारिक हो जाती है। कुमाऊंनी होली गायनशैली में राग भैरवी, ब्रजधाम में रचाबसा धमार, पीलू, बागेश्री, जैजवंती, खमाज आदि रागों की प्रधानता रहती है। खास बात कि बढ़ते प्रहर के अनुरूप रागों का अनुसरण करने की परंपरा है।

शक्ति की भी उपासना

सियाराम, राधा कृष्ण एवं शिव पार्वती के अनूठे बंधन को प्रदर्शित करता होली पर्व अपने आराध्यों की तरह मातृ पक्ष के प्रति अपनी श्रद्धा को दर्शाता है। कुमाऊं के अधिकांश क्षेत्रों में होली का श्रीगणेश देवी मंदिरों से होता है।

त्रियोदशी व चतुर्दशी को संबंधित क्षेत्रों की अराध्य देवी मंदिरों में अबीर गुलाल चढ़ा परिक्रमा की पुरातन परंपरा है। रानीखेत व अल्मोड़ा में नंदादेवी, द्वाराहाट में आदिशक्ति दुनागिरि, लमगड़ा में बानड़ी विंद्यवासिनी देवी, सल्ट में कलिंका देवी, चंपावत में देवीधुरा, नैनाताल में नैना देवी मंदिर इनमें मुख्य हैं।

और पहाड़ में शिव प्रधान हो गई होली

‘होली खेलें महादेव, देवलोक में रंगवा उड़ावे…,’ मिलन व समदर्शिता के प्रतीक होली खासतौर पर देवभूमि में शिव व शक्ति प्रधान हो जाती है। फाल्‍गुन कृष्णपक्ष की चतुर्दशी के दिन विवाह के बाद कैलासवासी शिव तथा पार्वती के अलौकिक प्रेम और सहचर्यता के रस को देवभूमि की धरा जैविक रस से तरबतर हो उठी।  धरती की सृजनात्मक शक्ति जाग्रत हो नई कोपलों के रूप में प्रस्फुटित हुई।

विविध रंगों से वातावरण वासंती और सुरमई हवा से अजब सा संगीत गुंजायमान हो उठा। इस अकल्पनीय दृश्य के साक्षी भगवान विष्णु भी रहे। उनके मन का प्रवाह भी इस कदर बह चला कि भक्त एवं रसिक दोनों विभोर हो उठे।

विष्णु की यही चपलता द्वापर युग के अवतार कृष्ण में समाहित हुई, जो राधा व गोपियों संग उनके अद्भुत तथा निश्छल प्रेम के रूप में प्रकट हुई। और अवध से ब्रज होते हुए कुमाऊं तक पहुंची कुमाऊंनी होली में शिवमहिमा की भी प्रधानता है। यही वजह है कि शक्ति के साथ शिव मंदिरों में रंग चढ़ा सामूहिक होली गायन की पुरातन परंपरा है।

अल्मोड़ा में कुमाऊं की काशी विश्वनाथ, द्वाराहाट में विभांडेश्वर तीर्थ, बदरी व केदार मंदिर, जागेश्वरधाम, सतराली समेत तमाम गांवों के हाेरियारों की टोलियां बागेश्वरधाम में पहुंचती हैं। यही कुछ विशेषताएं कुमाऊंनी होली को विशिष्ट बनाती हैं। छलड़ी पर घर-घर जाकर ढोल की थाप व मजीरे की खनक के बीच परिवार, गांव समाज की सुख समृद्ध, बेहतर स्वास्थ्य और अगले बरस फिर मिलने की कामना के साथ शुभाशीष दी जाती है।

 

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