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आदिवासियों के आराध्य कचना-धुरवा की अमर प्रेम कहानी:दुश्मन राजा ने तब मारा, जब घोड़े का एक पांव थल और तो दूसरा जल में था

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Acn18.com/विश्व आदिवासी दिवस के मौके पर गरियाबंद के लोग आज राजा धुरवा और कुमारी कचना की प्रेम कहानी को याद कर रहे हैं। गरियाबंद जिले की फिजाओं में आज भी राजा धुरवा और कुमारी कचना की प्रेम कहानी गूंजती है। दोनों जीते जी तो एक नहीं हो सके, लेकिन मरने के बाद दोनों की कहानी अमर हो गई।

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आदिवासियों के आराध्य देव में कचना धुरवा का नाम शुमार है। धार्मिक, सामाजिक या कोई भी मांगलिक कार्य हो, ऐसे मौकों पर लोग कचना धुरवा का आशीर्वाद जरूर लेते हैं। यहां तक कि लोग जब घनघोर जंगलों से गुजरते थे या कहीं भी यात्रा के लिए निकलते थे, तो इनकी पूजा करने के बाद ही निकलते थे। मैनपुर के बाजाघाटी, गरियाबंद के बारूका और छुरा प्रवेश से पहले मुख्य मार्ग पर कचना धुरवा का देवालय मौजूद है। यहां आज भी राहगीर देवालय में माथा टेकने के बाद ही आगे बढ़ते हैं। मान्यता है कि कचना धुरना से उनके क्षेत्र में निर्बाध आवागमन की अनुमति मांगी जाती है।

46 बार हुए युद्ध, फिर छल से मारे गए राजा धुरवा

लोक कथाओं के अनुसार, बिंद्रानवागढ़ के राजकुमार धुरवा धरमतराई जो आज धमतरी कहलाता है, वे राजकुमारी कचना से प्रेम करते थे। धरमतराई क्षेत्र के राजा मारादेव भी कचना की खूबसूरती से प्रभावित थे। इसके चलते उनसे कचना-धुरवा का मिलन बर्दाश्त नहीं हो रहा था। मारादेव ने राजकुमार धुरवा से 46 बार युद्ध किया, जिसमें से 45 बार उसकी हार हुई। देवी आराधना और पुरखों से मिले आशीर्वाद के कारण धुरवा को एक वरदान मिला हुआ था। इसके अनुसार उनकी मौत जल और थल के संयोग स्थल पर ही हो सकेगी।

इनकी मौत का रहस्य मारादेव को पता चल गया। इसके बाद मारादेव ने 46वीं बार युद्ध महानदी के मुहाने पर किया। इस युद्ध में राजकुमार धुरवा का सिर मारादेव ने उनके धड़ से उस वक्त अलग कर दिया, जब धुरवा के घोड़े का एक पांव थल पर था और दूसरा जल पर था। इधर प्रेमी धुरवा की मौत के बाद उनका कटा हुआ सिर अपनी गोद में रखकर कुमारी कचना ने भी अपने प्राण त्याग दिए।

बिलाईमाता मंदिर नहीं जाते धुरवा के वंशज

राजा धुरवा के वंशज माने जाने वाले छुरा के शाह परिवार, वंशावली से जुड़े देवभोग के दाऊ परिवार, गुढ़ियारी और धवलपुर के दीवान परिवार के सदस्य आज भी धमतरी के बिलाईमाता मंदिर में प्रवेश नहीं करते हैं। ये मंदिर से जुड़े आदिवासी परिवार के घर अन्न-जल भी ग्रहण नहीं करते हैं। माना जाता है कि ये राजकुमारी कचना के मायके से जुड़ा हुआ है, इसलिए वे ऐसा करते हैं।

कौन थे राजकुमार धुरवा

बालाघाट-लांजीगढ़ रियासत के राजा सिंहलशाय के बेटे थे धुरवा। इनकी माता गागिन देवी थीं। लांजीगढ़ एक संपन्न रियासत माना जाता था, लेकिन भीषण अकाल की त्रासदी ने सब कुछ छीन लिया। इस बीच लांजीगढ़ में मुस्लिम राजाओं का आक्रमण हुआ। राज्य छोड़ कर राजा ने पंडरापाथर नाम की जगह पर शरण ली। कुछ समय के बाद सिंहल शाय बिंद्रानवागढ़ के घनघोर जंगल पहुंच गए। राजा सिंहलशाय भगवान शिव के उपासक थे।

भगवान शिव को प्रसन्न करने के बाद उन्होंने राज्य विस्तार का वरदान मांगा। बूढ़ादेव (शिव) के आदेश पर राजा ने अपनी कटार (छूरे) को फेंका। भगवान के वरदान से उनके राज्य का छुरा से विस्तार हुआ। इसी छुरा में आज भी गोंड राजाओं के वंशज रहते हैं। धीरे-धीरे राजा सिंहलशाय की शक्ति और संपत्ति बढ़ती गई, लेकिन इलाके में दूसरी ताकत चिनडा भुंजिया ने सिंहलशाय की छल से हत्या कर दी।

गर्भवती रानी गागिन देवी को भागकर कालाहांडी के पटबागड़ इलाके में शरण लेना पड़ा था। गरीब ब्राह्मण दंपत्ति की देखरेख में रानी ने बेटे को जन्म दिया। धूल-मिट्टी से सने स्थान पर जन्म लेने के कारण उसका नाम धुरवा रखा गया। 15 साल की उम्र में धुरवा ने देवी आराधना से शक्ति पा ली, फिर बदला लेने के लिए बिंद्रानवागढ़ आकर भुंजिया राजा को परास्त कर दिया। धुरवा ने छुरा तक फैले राज्य को अपने अधीन कर लिया।

अमर प्रेम कहानी के प्रमाण मौजूद, लेकिन लिखित इतिहास नहीं

जानकारों के मुताबिक, इसे 12वीं-13वीं शताब्दी में घटित घटना माना गया है। बिंद्रानवागढ़ के पहाड़ का नाम कचना धुरवा डोंगरी रखा गया। लोक कथाओं के अनुसार, राजा धुरवा की हत्या के बाद उनके कटे हुए सिर के आग्रह पर गोबर बीनने वाली वृद्ध महिला ने बांस की टोकरी में सिर को रखा। इसके बाद वो बिंद्रानवागढ़ पहुंची।राजा के वंशजों ने शीश उठाए महिला का स्मारक डोंगर के ऊपर बनवाया था, जिसे आज भी राउताईंन पथरा के नाम से पूजा जाता है।

धुरवा और कचना की आत्मा के मिलन के जीवंत प्रमाण के बाद दोनों को संयुक्त रूप से पूजा जाने लगा। इसी डोंगर के नीचे प्रतिवर्ष चैत्र में आदिवासी परंपरा से कचना धुरवा की पूजा होती है।

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