धीरे-धीरे गौरैया विलुप्ति के कगार पर पहुंचती जा रही है। भारत में इसकी कितनी संख्या है, इसकी गणना अभी तक नहीं की गई है, लेकिन देश के कुछ राज्यों में छिटपुट तरीके से इसकी गणना जरूर की जा रही है। एक अनुमान के अनुसार तमिलनाडु और पुदुचेरी में गौरैया की संख्या मामूली रूप से बढ़ी है। लखनऊ विश्वविद्यालय की एक रिपोर्ट के अनुसार लखनऊ में भी गौरैया की संख्या पहले के मुकाबले बढ़ी है।
गौरैया की घटती आबादी निश्चित रूप से चिंता की बात है, क्योंकि यह पर्यावरण को संरक्षित करने में अहम भूमिका निभाती है। दरअसल बदले परिवेश में घरों की जगह गगनचुंबी इमारतों ने ले ली है। आधुनिक स्थापत्य की बहुमंजिली इमारतों में गौरैया के रहने की कोई गुंजाइश नहीं है। इधर, मोबाइल टावरों से निकलने वाली तरंगें उनकी जान लेने के लिए आमादा हैं। ये तंरगें गौरैया की दिशा खोजने वाली प्रणाली एवं उनकी प्रजनन क्षमता पर विपरीत प्रभाव डालती हैं। ज्यादा तापमान भी गौरेया के लिए जानलेवा होता है। गौरतलब है कि प्रदूषण, विकिरण, कटते पेड़ों आदि के कारण शहरों का तापमान तेजी से बढ़ रहा है। इन कारणों से गौरैया खाना और घोंसले की तलाश में शहरों से पलायन कर रही हैं, लेकिन ग्रामीण इलाकों में भी इन्हें चैन नहीं मिल पा रहा है, क्योंकि गांव-देहात तेजी से शहर में तब्दील हो रहे हैं।
घरेलू गौरैया, जिसका वैज्ञानिक नाम पासर डोमेस्टिकस है, एक छोटी प्रजाति की पक्षी है, जिसका निवास खास तौर पर एशिया, अमेरिका, यूरोप आदि हैं। वैसे, कमोबेश यह पूरे विश्व में जहां भी इंसान रहते हैं, पाई जाती है। शहरी इलाकों में गौरैया की छह तरह ही प्रजातियां पाई जाती हैं, जिसे हाउस स्पैरो, स्पेनिश स्पैरो, सिंड स्पैरो, रसेट स्पैरो, डेड सी स्पैरो और ट्री स्पैरो के नाम से जाना जाता है। इनमें हाउस स्पैरो को गौरैया कहा जाता है। ये शहरों में ज्यादा पाई जाती हैं। आज भी यह विश्व में सबसे अधिक शहरों में पाई जाने वाली पक्षियों में से एक है।
गौरैया को संरक्षित करने के लिए आज लोगों को जागरूक करने की जरूरत है। इस क्रम में नुक्कड़ नाटकों के माध्यम से गौरैया संरक्षण के लिए लोगों को प्रेरित किया जा सकता है। विद्यालयों में सेमिनार आयोजित कर गौरैया संरक्षण के प्रति बच्चों एवं शिक्षकों को जागरूक किया जा सकता है। सरकार, गैर-सरकारी संगठन, मीडिया, बच्चे और युवा को इस दिशा में महती भूमिका निभानी चाहिए।
गौरैया के पुनर्वास के लिए घर ऐसे बनाए जाएं, जिनमें झरोखे, छत व आंगन हों, उनके खाने के लिए दाने की व्यवस्था हो, आंगन और छतों पर पौधे लगाए जाएं, घर की मुंडेर पर मिट्टी के बरतन में पानी रखा जाए, फसलों में कीटनाशकों का प्रयोग न किया जाए। ये कुछ ऐसे उपाय हैं, जिनसे गौरैया को बचाने में मदद मिल सकती है। बिहार के नालंदा जिले के तेतरावां गांव ने ऐसा करके हमें दिखा दिया है। हमें इस गांव के लोगों से सीखने की जरूरत है।