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BJP Foundation Day: कैसा रहा भाजपा का सियासी सफर? पढ़ें कांग्रेस की आंधी में कमल खिलाने वाले सांसदों की कहानी

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Acn18.com/आज भारतीय जनता पार्टी यानी भाजपा का 43वां स्थापना दिवस है। इस मौके पर भाजपा अगले एक हफ्ते तक देशभर में लोगों के बीच जाएगी और कई कार्यक्रमों का आयोजन करेगी। एक वक्त ऐसा भी था, जब भाजपा अपने अस्तिस्व की लड़ाई लड़ रही थी और आज देश के कई राज्यों में उसकी सत्ता है। केंद्र में लगातार दूसरी बार उसे बहुमत मिला है। आइए हम आपको बताते हैं दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी के राजनीतिक सफर के बारे में…

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बात 1980 की है। देश में आम चुनाव हुए। कांग्रेस ने सबसे ज्यादा 353 सीटों पर जीत हासिल की। वहीं, जनता पार्टी के महज 31 उम्मीदवार जीत पाए। ये जनता पार्टी तीन साल पहले यानी 1977 में भारी बहुमत के साथ सत्ता में आई थी। चुनाव में मिली हार के बाद जनता पार्टी के नेताओं ने समीक्षा की। राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने इस हार के पीछे नेताओं की दोहरी भूमिका को जिम्मेदार ठहराया।

6 अप्रैल 1980 को नए राजनीतिक संगठन का गठन
दरअसल, आपातकाल के दौर में कई विपक्षी पार्टियों के विलय से बनी ये पार्टी विचारधारा के द्वंद में फंस गई थी। समाजवादी धड़े के नेता जनसंघ के नेताओं की दोहरी भूमिका पर बैन लगाने की मांग कर रहे थे। ऐसा हुआ भी, कहा गया कि जनता पार्टी के नेता या तो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) में रहें या फिर पार्टी के लिए काम करें। दोनों में से किसी एक का चुनाव करना होगा। इस बैन का नतीजा ये रहा कि भारतीय जनसंघ के नेता जनता पार्टी से अलग हो गए। छह अप्रैल 1980 को इन नेताओं ने भारतीय जनता पार्टी नाम से नए राजनीतिक संगठन का गठन कर लिया। यहीं से भाजपा का आगाज हुआ। अटल बिहारी वाजपेयी नई पार्टी के संस्थापक अध्यक्ष चुने गए।
भाजपा के खाते में सिर्फ दो सीटें आईं
31 अक्टूबर 1984 को देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हो गई। देशभर में बवाल होने लगा। कांग्रेस ने तुरंत चुनाव कराने का फैसला लिया और चुनाव आयोग ने इसका एलान कर दिया। 1984 आम चुनाव में पहली बार भारतीय जनता पार्टी ने शिरकत की। चुनाव में कांग्रेस की आंधी चली। सहानभूति लहर में कांग्रेस के 404 प्रत्याशी चुनाव जीत गए। पहली बार चुनाव लड़ने वाली भारतीय जनता पार्टी यानी भाजपा के खाते में केवल दो सीटें आईं। तब प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने इसका मजाक भी बनाया था। कहा था, ‘हम दो, हमारे दो।’ उनका ये कटाक्ष पार्टी अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी और  भाजपा के दो सांसदों पर था।
इन दो नेताओं ने पहली बार खिलाया था कमल
कांग्रेस की लहर में भी भाजपा को जीत दिलाने वाले डॉ. एके पटेल और चंदूपतला जंग रेड्डी थे। पटेल गुजरात की मेहसाणा सीट से जीते थे, जबकि चंदूपतला रेड्डी आंध्र प्रदेश की हनमकोंडा सीट से सांसद बने थे। आइए दोनों के बारे में जानते हैं…

1. डॉ. एके पटेल : एमबीबीएस डॉक्टर जिन्होंने राजनीति में कदम रखा था। पिता का नाम कालीदास पटेल था। डॉ. पटेल का जन्म एक जुलाई 1931 को मेहसाणा में हुआ था। वह गुजरात के बड़े डॉक्टरों में शुमार थे। 1975 से लेकर 1984 तक वह गुजरात विधानसभा के सदस्य रहे।  1977 में उन्हें गुजरात भारतीय जनसंघ का अध्यक्ष बनाया गया। 1984 में वह भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष बनाए गए। कांग्रेस की आंधी के बीच भी 1984 में पहली बार मेहसाणा से लोकसभा चुनाव जीतकर सांसद बने। इसके बाद लगातार पांच बार सांसद रहे। 1998 में जब भाजपा की सरकार बनी तो उन्हें केंद्रीय मंत्री बनाया गया।

2. चंदूपातला जंगा रेड्डी : 18 नवंबर 1935 में चंदूपातला जंगा रेड्डी का जन्म हुआ था। आंध्र प्रदेश के वारंगल जिले के एक गांव के स्कूल में वह शिक्षक रहे। भारतीय जनसंघ की शुरुआत हुई तो वह इससे जुड़ गए। 1967 से 1984 तक वह लगातार तीन बार विधायक चुने गए। 1984 के आम चुनाव में उन्हें भारतीय जनता पार्टी ने लोकसभा का उम्मीदवार बनाया और वह जीत गए। उन्होंने कांग्रेस के पीवी नरसिम्हा राव को हराया, जो बाद में देश के प्रधानमंत्री भी बने थे।  जंगा रेड्डी दक्षिणी राज्यों से भाजपा के पहले सांसद थे। छात्र जीवन से ही सार्वजनिक जीवन में सक्रिय रहे रेड्डी ने राम जन्मभूमि आंदोलन समेत कई आंदोलनों में हिस्सा लिया था। वह तेलंगाना सत्याग्रह आंदोलन में भी सक्रिय रहे थे।

अटल भी हार गए थे चुनाव
1984 के चुनाव में भाजपा के संस्थापक अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी भी चुनाव हार गए थे। वाजपेयी का जन्म 25 दिसंबर 1924 को ग्वालियर में हुआ था। जनसंघ के उम्मीदवार के तौर पर 1971 में उन्होंने ग्वालियर लोकसभा सीट जीती थी। हालांकि, कांग्रेस की आंधी में माधव राव सिंधिया से 1984 में वह चुनाव हार गए थे। सिंधिया राजघराने से आने वाले माधव राव को ग्वालियर से हराना तकरीबन नामुमकिन कहा जाता था।

वाजपेयी के सामने सिंधिया के चुनाव में खड़े होने की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है। माधव राव सिंधिया के ग्वालियर से चुनाव लड़ने की खबर अचानक आई थी। इसने वाजपेयी को चौंका दिया था। नामांकन के अंतिम दिन सिंधिया ने ग्वालियर लोकसभा सीट से नॉमिनेशन पेपर फाइल किए थे। कहा जाता है कि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कहने पर सिंधिया ने ऐसा किया था। इसके पहले तक वाजपेयी का वहां से जीतना करीब-करीब तय माना जा रहा था। ग्वालियर की महारानी राजमाता विजय राजे सिंधिया वाजपेयी को समर्थन दे रही थीं।

हालांकि, कांग्रेस ने राजमाता के बेटे माधव राव को अपने उम्मीदवार के तौर पर ग्वालियर के मैदान में उतार दिया। इसे देखते हुए वाजपेयी ने पड़ोस के भिंड से नामांकन पत्र जमा करने की कोशिश की थी। वह वहां कार से गए भी थे। हालांकि, तब तक नामांकन जमा करने का समय निकल गया था। माधव राव ने वाजपेयी को 1.65 लाख वोटों से हराया था।

और फिर पूरे देश में खिलता गया कमल
1984 में दो सीटें जीतने वाली भाजपा के पास अब 303 सांसद हैं, वहीं कांग्रेस 414 सीटों से 52 सीटों पर सिमट गई है।
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