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टैगोर की कहानी से शिक्षा प्रणाली के सबक:एजुकेशन में दिखावा नहीं, जरूरी है बच्चों को सोचने की ताकत देना

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Acn18.com/‘किसी पक्षी के पंखों को सोने से सजाओ और वह फिर कभी आसमान में नहीं उड़ सकेगा।’

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ये शब्द हैं ‘गुरुदेव’ के नाम से पहचाने जाने वाले शख्स, जिनके लिखे गीत तीन राष्ट्रों (भारत, बांग्लादेश और श्रीलंका) के राष्ट्रगान हैं। वे नोबेल पुरस्कार (साहित्य) प्राप्त करने वाले पहले गैर-यूरोपीय भी रहे।

आज (मई 9) ‘रविन्द्र जयंती’ है अर्थात भारत को ‘ शांतिनिकेतन’ और ‘विश्व भारती’ जैसे शिक्षा संस्थान देने वाले शख्स ‘रविंद्रनाथ टैगोर’ का जन्मदिन। उनका जन्म 7 मई 1861 को हुआ था। हालांकि, बंगाली कैलेंडर में उनके जन्मदिन पर, बैसाख के 25वें दिन रवींद्र जयंती मनाई जाती है। आमतौर पर यह दिन 8 या 9 मई को पड़ता है।

आज हम जानेंगे रविंद्र नाथ टैगोर द्वारा 1918 में लिखी ‘तोता कहानी’ से एजुकेशन सेक्टर, टीचर्स, स्टूडेंट्स और प्रोफेशनल्स के लिए सबक।

‘तोता कहानी’ का सारांश

एक मूर्ख तोता था। गाता तो था, पर शास्त्र नहीं पढ़ता था। राजा बोले, ‘ऐसा तोता किस काम का? इस तोते को शिक्षा दो!’

पंडितों की बैठक हुई। चर्चा से निकला कि तोता अपना घोंसला साधारण खर-पात से बनाता है। ऐसे आवास में विद्या नहीं आती। सुनार बुलाया गया। पिंजरा ऐसा अनोखा बना कि उसे देखने के लिए देश-विदेश के लोग टूट पड़े। पंडित जी तोते को विद्या पढ़ाने बैठे। पोथी लिखने वालों को बुलवाया। पोथियों की नकल होने लगी। पिंजरे की मरम्मत, झाडू-पोंछ और पॉलिश की धूम भी मची ही रहती थी। इन कामों पर अनेक-अनेक लोग लगाए गए और उनके कामों की देख-रेख करने के लिए और भी अनेक-अनेक लोग लगे।

संसार में निन्दकों की कोई कमी नहीं है। वे बोले, ‘पिंजरे की तो उन्नति हो रही है, पर तोते की खोज-खबर लेने वाला कोई नहीं है!’ बात राजा के कानों में पड़ी। राजा का मन हुआ कि एक बार चलकर अपनी आंखों से यह देखें कि शिक्षा कैसे चल रही है। उनके पहुंचते ही पंडित गले फाड़-फाड़कर और बूटियां फड़का-फड़काकर मंत्र-पाठ करने लगे। राजा को पढ़ाने का ढंग दिखाया गया। देखकर उनकी खुशी का ठिकाना न रहा। पढ़ाने का ढंग तोते की तुलना में इतना बड़ा था कि तोता दिखाई ही नहीं पड़ता था।

पिंजरे में दाना-पानी तो नहीं था, थी सिर्फ शिक्षा। यानी ढेर की ढेर पोथियों के ढेर के ढेर पन्ने फाड़-फाड़कर कलम की नोंक से तोते के मुंह में घुसेड़े जाते थे। गाना तो बन्द हो ही गया था, चिल्लाने के लिए भी कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी गई थी। तोते का मुंह ठसाठस भरकर बिल्कुल बन्द हो गया था। देखने वाले के रोंगटे खड़े हो जाते। राजा ने कान-उमेठू सरदार को ताकीद किया कि ‘निन्दक के कान अच्छी तरह उमेठ देना!’

तोता दिन प्रति दिन भद्र रीति के अनुसार अधमरा होता गया। फिर भी पक्षी-स्वभाव के एक स्वाभाविक दोष से तोते का पिंड अब भी छूट नहीं पाया था। सुबह होते ही वह उजाले की ओर टुकुर-टुकुर निहारने लगता था और बड़ी ही अन्याय-भरी रीति से अपने डैने फड़फड़ाने लगता था। इतना ही नहीं, किसी-किसी दिन तो ऐसा भी देखा गया कि वह अपनी रोगी चोंचों से पिंजरे की सलाखें काटने में जुटा हुआ है। कोतवाल गरजा, ‘यह कैसी बेअदबी है!’ फौरन लुहार हाजिर हुआ। लोहे की सांकल तैयार की गई और तोते के डैने भी काट दिए गए।

तोता मर गया। कमबख्त निन्दक ने अफवाह फैलाई कि ‘तोता मर गया!’ राजा ने भांजे को बुलवाया, भांजे ने कहा, ‘महाराज, तोते की शिक्षा पूरी हो गई है!’

राजा ने पूछा, ‘अब भी वह उछलता-फुदकता है?’ भांजा बोला, ‘अजी, राम कहिए!’ ‘अब भी उड़ता है?’ ‘ना:, कतई नहीं!’ ‘अब भी गाता है?’ ‘नहीं तो!’ ‘दाना न मिलने पर अब भी चिल्लाता है?’ ‘ना!’

इस मार्मिक कहानी से सबक

1) शिक्षा व्यवस्था का मूल उद्देश्य क्या है

शिक्षा का उद्देश्य ज्ञान और विचार क्षमता प्रदान करना है। जहां शिक्षा ‘जमीन पर कार्य करने’ और ‘बाहर निकल कर दुनिया देखने’ से मिलती है, आज की शिक्षा व्यवस्था (खासतौर से प्राइवेट सेक्टर में) महंगी, आलीशान बिल्डिंग्स और AC क्लासरूम्स में सिमट गई है। इसीलिए महंगी भी है। अपवाद कम ही हैं।

2) शिक्षा सिर्फ अनुशासन नहीं है

शिक्षा का मूल उद्धेश्य मनुष्यों के नैसर्गिक गुणों को पहचान कर उनका विकास करना है, मनुष्य को विचारशील बनाना है, ना कि अनुशासन के नाम पर व्यक्तियों के प्राकृतिक गुणों की हत्या करना। ऐसा कर हम विद्यार्थियों के विकास के रास्ते ही बंद कर देंगे।

3) दिखावे पर जोर बनता है कमजोर

थोड़ा सोच कर देखें तो कहानी भारतीय एजुकेशन सिस्टम पर बिल्कुल फिट बैठती है। भारत के प्राइवेट स्कूल्स पर नजर डालिए, और आपको अनेकों जगह दिखेंगीं यूनिफॉर्म, असेसरीज, भोजन, बस, किताबें, स्टेशनरी, वाटर-बॉटल, बैग– सब स्कूल के लोगों के साथ, स्कूल से मिलेगा। केवल एजुकेशन लेने के लिए स्कूल के बाद शाम को कोचिंग लगवानी पड़ेगी?

4) समय के साथ पढ़ाने के तरीकों में बदलाव

पढ़ाने के तरीके पुराने और घिसे-पिटे ही चले आ रहे हैं, इस क्षेत्र में रिसर्च का भी अभाव है। उसका एक कारण है परिवर्तन का डर और नए निवेश का भय।

सारांश

रविंद्रनाथ टैगोर की लिखी कहानी भारत के एजुकेशन सिस्टम पर सटीक प्रहार करती है। ये हम सबको सोचने पर विवश करती है कि हम अपना इनर्शिया तोड़ें और नया सोचें।

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