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हिंदी वाया हिंग्लिश व हिंदी की प्रतिद्वंदी प्रादेशिक राजभाषाएं : डॉ राजाराम त्रिपाठी

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Acn18.com/हाल में ही देश ने हिंदी-दिवस, हिंदी-सप्ताह, हिंदी-पखवाड़ा आदि की फिजूल की औपचारिकताएं पूर्ण कर चैन की सांस ली है, हिंदी मास भी अपनी समाप्ति के अंतिम चरण पर है। इसके साथ ही हिंदी की बिंदी उतार कर एक बार फिर ड्रेसिंग टेबल के आईने पर अथवा अगले साल के कैलेंडर के चौदह सितंबर तारीख पर चिपका दी जाएगी। इस साल भी आयोजन की सारी नौटंकियां कमोबेश फिर से पूर्ववत दोहराई गईं। हिंदी के उद्धार हेतु आयोजित इन सम्मेलनों के मंचों पर राष्ट्र निर्माण में लगे छोटे बड़े राजनेताओं,नौकरशाहों तथा कार्यक्रम आयोजक दलालों के बीच, बर्फी पर लगे काजू-बादाम की तरह इक्के-दुक्के विराजमान हिंदी के तथाकथित वरिष्ठ लेखकगणों ने मंच की शोभा बढ़ाई। इन मंचों से सारे वक्ता या तो कच्चे-पक्के आंकड़े पेशकर अखिल विश्व में लहरा रहे राष्ट्र-भाषा हिंदी के परचम का गुणगान करते रहे या फिर इसकी सौतन अंग्रेजी को गालियां देकर तालियां पाते रहे। हिंदी का असल दुर्भाग्य तो यही है कि इन आयोजनों के ज्यादातर आयोजनकर्ता,भाषण कर्ता और ताली बजाने वालों को यह भी नहीं पता की हिंदी देश की राष्ट्रभाषा है या राजभाषा और यह भी नहीं पता है कि आखिर राष्ट्रभाषा, राजभाषा में अंतर क्या है।

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उल्लेखनीय है कि महात्मा गांधी ने सबसे पहले 1917 में गुजराज के भरुच सम्मेलन में हिंदी को राष्ट्रभाषा के रुप में मान्यता प्रदान की थी । गांधीजी ने साल 1918 में भी ‘हिंदी साहित्य सम्मेलन’ में हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की बात कही थी। महात्मा गांधी के अलावा जवाहरलाल नेहरू भी थे जिन्होंने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की वकालत की थी। संविधान सभा ने भी 14 सितंबर 1949 को इसे राजभाषा का दर्जा देने को लेकर सहमति जताई थी। 1950 में संविधान के अनुच्‍छेद 343(1) के द्वारा हिंदी को देवनागरी लिपि के रूप में संघ की राजभाषा का दर्जा भी दिया गया।

परंतु यह हिंदी नहीं बल्कि देश का दुर्भाग्य है कि आज पर्यंत हिंदी आधिकारिक ‘राष्ट्रभाषा’ नहीं बन पाई है। विश्वगुरु कहलाने वाले, विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले गौरवशाली देश के पास आजादी के 77 साल बाद भी अपनी एक अदद ‘राष्ट्रभाषा’ का ना होना राष्ट्रीय शर्म और विपन्नता नहीं तो और क्या है? और ऐसा आखिर क्योंकर हुआ ?
तब दक्षिण के राज्यों के तत्कालीन नेताओं के द्वारा क्षुद्र क्षेत्रीय राजनैतिक लाभ से प्रेरित होकर हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का विरोध किया गया। आगे भी, आवश्यकतानुसार समय समय-समय वोटो की राजनीति के तहत दक्षिण राज्यों की जन भावनाओं को हिंदी के विरुद्ध खड़ा कर इस तवे को गर्म कर हमेशा राजनीतिक रोटी सेंकी गई है। सोचनीय विषय है कि इन्हें सात समुंदर पार से आई अंग्रेजी भाषा स्वीकार है पर अपने देश की भाषा हिंदी स्वीकार्य नहीं है।

चाहे हम स्वीकार करें अथवा ना करें पर हकीकत यही है कि हमारे देश में आज अंग्रेजी सफल ,संपन्न , शिक्षित, आभिजात्य वर्ग की भाषा के रूप में स्थापित हो गई है। हिंदी भाषी कितना भी पढ़ा लिखा उच्च शिक्षित क्यों ना हो पर उसे जगह-जगह पर दोयम दर्जे का नागरिक होने का सप्रयास एहसास दिलाया जाता है। कुछ उदाहरणों से यह और ज्यादा स्पष्ट होगा। विमान पत्तन पर टिकट खिड़की पर तैनात व्योमबालाओं से अगर आपने हिंदी में बात शुरू की तो उनके भाव भाव एवं प्रतिक्रिया से आपको भली-भांति समझ में आ जाएगा कि आपकी हिंदी ने आपको बलपूर्वक दूसरे पायदान पर खिसका दिया है। वहीं अगर कोई दूसरा यात्री जब कॉन्वेंटी अंग्रेजी में अपने वार्तालाप की शुरुआत करता है तो उसे अनायास प्रथम प्राथमिकता का दर्जा मिल जाता है। बहुत संभावना इस बात की होती है की दोनों को हिंदी आती है, और कई बार यह वार्तालाप अंग्रेजी में शुरू होने के बाद दोनों ही सुविधानुसार हिंदी पर उतर आते हैं, पर इससे उसकी प्राथमिकता क्रम में कोई अंतर नहीं आता। इन हवाईअड्डों की किताब की दुकानें तो मुझ जैसे हिंदी-भाषी को हताशा और कुंठा में भर देती है। यहां आलमारियों में सलीके से सजा विश्व का प्रतिनिधि साहित्य के साथ ही लगभग हर विषय पर पुस्तकें मौजूद हैं, पर सब कुछ केवल अंग्रेजी में। यहां इक्की-दुक्की हिंदी पत्रिकाओं और दो चार तथाकथित बेस्टसेलर हिंग्लिश उपन्यासों के अलावा पूरा का पूरा हिंदी साहित्य पूरी तरह नदारत है। पिछले 25 सालों से इन दुकानों में नियमित रूप से जाता रहा हूं और हर बार हिंदी की ज्यादा पुस्तकें भी रखने का अनुरोध करता रहा हूं। इनके तयशुदा जवाब आज भी वही है जो 25 साल पहले थे कि हिंदी किताबें लोग खरीदते ही नहीं तो रखने से क्या फायदा,और दूसरा यह कि उनकी कंपनी के उच्च अधिकारी हिंदी की किताबें रखवाते ही नहीं। यह तो वही बात होगी पहले मुर्गी या अंडा? भाई हिंदी की किताबें दुकान में रखोगे ही नहीं, दिखेंगी ही नहीं, तो बिकेंगी कैसे ?

एक और कारण जिसकी और अभी कम ध्यान गया है वह है ‘हिंग्लिश’ जो कि हिंदी को बहुत तेजी से और बहुत ज्यादा नुकसान पहुंचा रही है। जरा देखिए कौन है वह लोग जो हिंदी को हिंग्लिश बनाने में जुटे हैं।

ब्रेकिंग-न्यूज़ वाले लगभग सभी टीवी चैनल अपनी हिंदी को हिंग्लिश बनाने में जुटे हुए हैं,, आखिर ‘ब्रेकिंग-न्यूज़’ को ‘नवीनतम-समाचार’ अथवा ‘ताजा-खबर’ भी तो कहा जा सकता था। वर्तमान दौर के तथाकथित बेस्टसेलर युवा लेखकों ने भी हिंदी को हिंग्लिश बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।

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