Acn18.com“मरीज ए इश्क पर रहमत खुद की, मरज बढ़ता गया जूं जूं दवा की” मियां ग़ालिब की यह दो पंक्तिया भारत की खेती और किसानों के हालात पर बिल्कुल सटीक बैठती हैं। संदर्भ यह है कि हाल ही में देश का ‘आर्थिक सर्वेक्षण’ और सालाना बजट- 24 लगातार दो दिनों तक, देश की सबसे बड़ी पंचायत ‘संसद’ में पेश किया गया। इस अवसर पर माननीय प्रधानमंत्री ने कृषि को देश के विकास का इंजन बताया। सैध्दांतिक आधार पर उनका यह कथन गलत भी नहीं है, क्योंकि देश की लगभग 70% जनता रोजगार के लिए तथा 100% जनता भोजन के लिए कृषि तथा कृषि संबद्धध उपक्रमों पर ही आश्रित है। किंतु जब बजट में कृषि हेतु राशि आवंटन की बात आई तो हमेशा की तरह इस बार भी मात्र 3 से 4 प्रतिशत के बीच में ही सिमट गई। विडंबना यह भी रही कि जब एक ओर सरकार कृषि के क्षेत्र में अपनी उपलब्धियां को बखान रही थी, उसी समय दिल दहलाने वाली खबर आई कि देश के अमरावती जिले में पिछले 152 दिनों में 145 किसानों ने आत्महत्या की है। संसद में यह भी बताया गया कि देश में 31 किसान प्रतिदिन आत्महत्या कर रहे हैं। कृषि प्रधान कहलाने वाले देश के लिए इससे बड़ा दुःख और शर्म का विषय और क्या हो सकता है।
विश्व की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने का दम अवश्य भरिए, पर हकीकत से भी आंख मत चुराइए। आंकड़े हमें आईना दिखा रहे हैं कि अमेरिका के किसान की सालाना आमदनी 65 लाख रुपए यानि कि दैनिक आमदनी 18 हजार रुपए है,वहीं भारत के किसान की प्रतिदिन की आमदनी 27 रुपए मात्र है। ऐसे में में देश के करोड़ों किसान परिवार किन कठिन हालातों में जीवनयापन करते होंगे, यह हमारे देश की भाग्य विधताओं को आखिर कब समझ में आएगा ?*
क्या इन सवालों के जवाब हासिल करना जरूरी नहीं है कि जिस देश में *”कृषि मूलम जगत सर्वम” एवं “कृषिकर्मणि सर्वश्रेष्ठम्” यानि कि कृषि को संपूर्ण जगत का आधार एवं सर्वोत्तम कार्य का दर्जा दिया जाता रहा है, वहां खेती और किसानों की यह दयनीय दुर्दशा आखिर कैसे हो गई?
भारत में कृषि का इतिहास हज़ारों साल पुराना है। वेदों में कृषि से संबद्ध पर्याप्त ऋचाएं हैं। ऋग्वेद में उल्लेख है कि किसान अपने खेतों में काम करके समाज के लिए अनाज पैदा करता है और समृद्धि लाता है। यह माना जाता रहा है “कृष्याः फलप्रदा धर्म्या प्रजा भूषणमुत्तमम्” (कृषि धर्म है, जो उत्तम फल देती है और प्रजा का भूषण है)
मुगलकालीन दौर में भी भारतीय कृषि का महत्वपूर्ण विकास हुआ।अकबर के शासनकाल में तोतानामा और आयन-ए-अकबरी जैसी व्यवस्थाओं में कृषि का विशेष ध्यान रखा गया। लेकिन कालांतर में किसानों को भारी करों का सामना करना पड़ता था। और सूखे या बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं के समय उनकी स्थिति और भी खराब हो जाती थी।
औपनिवेशिक काल में कंपनी और ब्रिटिश सरकार की कृषि नीतियों ने किसानों की स्थिति को बहुत प्रभावित किया। भारी कर, नकदी फसलों की ओर मजबूरी, और किसानों की भूमि से जबरिया बेदखली जैसी नीतियों ने भारतीय किसानों को अत्यधिक कष्ट दिया। औपनिवेशिक शासन के तहत भारतीय कृषि का एक बड़ा हिस्सा निर्यात के लिए तैयार नकदी फसलों की ओर मुड़ गया, जिससे खाद्यान्न की कमी और किसानों की दुर्दशा बढ़ गई। यूरोपीय औपनिवेशिक औद्योगिक क्रांति के कारण भारत के कृषि आधारित ग्रामीण कुटीर उद्योग धंधे भी शनै शनै चौपट होते गए।
स्वातंत्र्योत्तर कृषि नीतियां व विसंगतियां :- स्वतंत्रता के बाद कृषि को प्राथमिकता देने की बातें तो लगातार हुईं लेकिन कृषि नीतियां धीरे-धीरे योजनाबद्ध विकास की अन्य प्राथमिकताओं के नीचे दबती चली गई ।
हरित क्रांति (1960 के दशक) ने कृषि उत्पादन में महत्वपूर्ण वृद्धि की, लेकिन इसने कई जटिल समस्याओं को जन्म दिया। उर्वरकों, बीजों, और सिंचाई की सुविधाओं पर अनुदान का भी प्रावधान रखा गया। लेकिन इसका पूरा पूरा फायदा बिचौलियों तथा रसूखदारों के अनैतिक गठजोड़ ने उठाया। लूट का ये सिलसिला आज भी जारी है। दूसरी ओर असंगत रासायनिक खादों के प्रयोग ने आज देश की लगभग 85% जमीन लगभग आज बंजर होने की कगार पर है। किसानों के उत्पाद को वाजिब मूल्य दिलाने हेतु ‘कृषि उत्पाद मूल्य आयोग’ बनाया गया, पर यह किसानों का पक्षधर कभी नहीं रहा और उनके द्वारा तय किए गए न्यूनतम समर्थन मूल्य खेती की वास्तविक लागत की तुलना में किसानों को घाटा ही देते रहे हैं। कृषि उपज मंडियां भी बनाई गई पर यहां भी यहां भी राजनीतिक छुटभइय्यों, बिचौलियों आढ़तियों ने कब्जा कर लिया। यहां भी किसानों की लूट पर रोक नहीं लग पाया।
भारतीय कृषि की वर्तमान व भावी ज्वलंत समस्याएं :-
1. जलवायु परिवर्तन: पिछले दिनों एक महत्वपूर्ण खबर आई की गेहूं पकने के समय गर्मी के बढ़ जाने के कारण गेहूं के दाने सिकुड़ गए और देश के सकल गेहूं उत्पादन में लगभग 16% की कमी आई। लगभग डेढ़ अरब जनसंख्या वाले देश भारत के लिए यह बेहद ही चिंताजनक और अलार्मिंग स्थित है। “पर्जन्यः पर्जन्याः फलं कृषकस्य सुखाय” (वर्षा का फल किसान की सुख के लिए है) – यह वैदिक उद्धरण खेती में मौसम की महत्ता को दर्शाता है। वैश्विक जलवायु परिवर्तन की अनियमित वर्षा, बाढ़, और सूखे जैसी समस्याओं से निपटना किसान के बस का नहीं है।
फसल-चक्र बदलने के साथ ही किसानों को अपनी खेती की पद्धतियों में भी आवश्यक बदलाव करना जरूरी है।
खेती की बढ़ती लागत और किसानों के उत्पादों का वाजिद मूल्य न मिलना:-
किसानों की सबसे बड़ी समस्या यही है कि उन्हें उनके उत्पादों का न्यूनतम समर्थन मूल्य भी नहीं मिल पाता है।
आर्थिक सहयोग विकास संगठन और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद(OECD-ICAIR)*की एक रिपोर्ट के अनुसार 2000 से 2017 के बीच किसानों को उत्पाद का सही मूल्य न मिल पाने के कारण 45 लाख करोड़ रुपए का नुकसान हुआ। सरकार की ही ‘शांता कुमार समिति’ ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि *एमएसपी का लाभ सिर्फ 6 प्रतिशत किसानों को ही मिल पाता। जिसका सीधा मतलब है कि देश के 94% किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य भी नहीं मिल पाता है और वो एमएसपी के फायदे से दूर रहते हैं। देश के किसानों को उचित मूल्य नहीं मिल पाने के कारण 5 से 7 लाख करोड़ का सालाना घाटा होता है। जबकि कृषि को सर्वोच्च प्राथमिकता देने के सरकारी दावों के बावजूद बजट 2024 में कृषि हेतु केवल 1.52 लाख करोड़ रुपए ही प्रावधानित किए हैं। यानी किसानों को इस चिड़िया की चुग्गे जैसे बजट के बावजूद इस साल भी लगभग 5 लाख करोड़ का घाटा उठाना पड़ेगा। जाहिर है स्थिति और विकराल होने वाली है।
किसानों पर कर्ज का बोझ:- किसान को उनके उत्पाद का सही मूल्य न मिल पाने के कारण उन्हें प्रायः घाटा उठाना पड़ता है और उनकी आय बहुत ही कम रहती है। कर्ज का बोझ और ब्याज की उच्च दरें किसानों की आर्थिक स्थिति को और भी खराब करती हैं। नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (NSSO) के आंकड़ों के अनुसार, देश के लगभग 47% किसान औसतन कर्ज में डूबे हुए हैं।
समाज का नासूर किसान आत्महत्याएं:- महाराष्ट्र के अमरावती डिवीजन की एक चौंकाने वाली रिपोर्ट आई है. जिसके मुताबिक 6 महीने में इस डिवीजन में 557 किसानों ने खुदकुशी कर ली। जबकि किसान संगठनों का कहना है कि विदर्भ में प्रतिदिन भारत किसान आत्महत्या कर रहे हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (NCRB) के अनुसार, 2020 में 10,677 किसानों और खेतिहर मजदूरों ने आत्महत्या की। यह आंकड़ा दर्शाता है कि आर्थिक और मानसिक दबावों के चलते किसानों की स्थिति कितनी गंभीर है।
. नीतिगत विसंगतियां:- प्राचीन मान्यता रही है कि “राज्यं पालयेत् कृषि पालेन” अर्थात राज्य की रक्षा कृषि की रक्षा से होती है। यह दर्शाता है कि कृषि की रक्षा किसी भी राष्ट्र की समृद्धि के लिए अनिवार्य है।
जबकि हमारी सरकारों की नीतियां अक्सर किसान विरोधी रही हैं हैं। पिछले भूमि अधिग्रहण कानून,नए तीनों विवादास्पद कृषि कानून, हालिया बिजली बिल कानून इसके उदाहरण है। किसानों को यह डर है कि सरकार की ये सभी नीतियां अंततः उनके हितों के खिलाफ ही काम करेंगी और उन्हें बड़े कार्पोरेट्स के सम्मुख मजबूर कर देंगी।
असल जिम्मेदार कौन ?:- अब लाख टके का सवाल यह है कि इन किसान विरोधी नीतियों के लिए कौन जिम्मेदार है। यह सवाल तथा इसके जवाब दोनों बहुआयामी हैं, जैसे कि :-
1. सरकारी नीतियां :- सत्ता के लिए वोटों की क्षुद्र राजनीति व कॉरपोरेट एवं सरकार की अनैतिक गठजोड़ के कारण सरकार की नीतियों और उनकी कार्यान्वयन की प्रक्रिया अक्सर किसानों के हितों के विपरीत होती है। नानाविध कारणों से कृषि कानूनों और तमाम अन्य सुधारों के बावजूद, उनका क्रियान्वयन सही तरीके से नहीं हो पाता।
2. कॉर्पोरेट हित सर्वोपरि :- राजनीतिक पार्टियों चुनाव लड़ने के खर्च के लिए बड़े कॉरपोरेट्स के चंदे पर निर्भर हैं। इसलिए बड़े कॉर्पोरेट घरानों के हितों का प्रभाव भी कृषि नीतियों पर स्पष्ट देखा जा सकता है। भूमि अधिग्रहण, नकदी फसलों की प्रवृत्ति और कृषि में निवेश की नीतियों पर कॉर्पोरेट का दबदबा रहता है। 2020-21 में, कॉर्पोरेट कंपनियों का कृषि में निवेश बढ़कर ₹78,000 करोड़ हो गया । इन दिनों हर बड़ा कॉर्पोरेट येन-केन प्रकरेण किसानों की भूमि हासिल कर अपने ‘लैंड-बैंक’ की वृद्धि करने में करने में लगा हुआ है। यह स्थिति देश के छोटे किसान जो कि लगभग 84% है, के लिए बेहद चिंताजनक है
3. सामाजिक कुचक्र:- भारतीय समाज की सामंती और जातिगत संरचना भी कृषि में असमानता को बढ़ावा देती है। छोटे और सीमांत किसान अक्सर बड़े जमींदारों और धनी किसानों के दबाव में रहते हैं। यह इस स्थिति में हालांकि कुछ परिवर्तन आया है पर अभी भी उनकी स्थिति को बेहतर बनाने के लिए बहुत कुछ किया जाना है।
वोट केन्द्रित राजनीति व बिखरा किसान नेतृत्व :- लोकतंत्र में हर समुदाय,,समूह अपनी सामाजिक स्थिति के अनुरूप अपना हक हासिल करने का प्रयास करता है। इस दौड़ में किसान कतार में सबसे अंतिम पायदान पर खड़े हैं । दरअसल देश की जनसंख्या का सबसे बड़ा भाग होने के बावजूद आज भी किसान एक संगठित वोट बैंक नहीं बन पाए हैं। भले उनके मुद्दे तथा सारी समस्याएं समान होती हैं पर यह समुदाय कभी भी अपने मुद्दों पर न तो पूरी तरह से एकजुट होता है और ना ही अपने मुद्दों पर एकमुश्त वोट देता है । किसान मतदाता बूथ में पहुंचने के बाद किसान रह ही नहीं रह जाता ,बल्कि वो हिंदू ,मुस्लिम, सवर्,दलित, अगले,पिछड़े जैसे अनगिनत खांचों में बंट जाता है।शातिर राजनीतिज्ञ अब यह तथ्य भली-भांति समझ गए हैं कि किसान कभी भी एक जुट होकर एक वोट बैंक नहीं बन सकता और अपने मुद्दों के लिए एकजुट होकर खड़ा नहीं हो सकता,इसलिए ये इनका भरपूर फायदा उठाते हैं। इस स्थिति के निर्माण के लिए किसानों का स्वार्थी, नपुंसक, अहंकारी , नाकारा नेतृत्व भी काफी हद तक जिम्मेदार है। ज्यादातर कूपमण्डूक किसान नेता प्राय: स्वकेंद्रित व अपने अपने झूठे अहंकारों में डूबे रहते हैं और क्षुद्र राजनीतिक लाभों के लिए किसान हितों से भी समझौता तैयार करने को तत्पर रहते हैं। इसलिए ये साझा मुद्दों पर भी जरूरी मजबूती के साथ एकजुट नहीं होते। ज्यादातर किसान नेता किसी न किसी राजनीतिक पार्टी के किसी ने किसी छोटे बड़े नेता के उपग्रह होते हैं। कई बड़े आंदोलनों के निर्णायक मौकों पर ऐसे नेता अपने क्षुद्र स्वार्थों के लिए आंदोलन को बेचने तक से बाज नहीं आते। अपने इन्हीं धतकर्मों से किसानों की जनसंख्या 70% होने के बावजूद यह समुदाय पिछले 75 सालों से 40% वोट पाकर बनने वाली निकम्मी सरकारों का मुंह ताक रहा है। वर्तमान में किसानों में नई चेतना जगी है। ऐसे दौर में देश के किसानों की समस्यायों तथा समाधान के संदर्भ में प्रखर रूसी कवियत्री ‘येलेना येरिख की ये पंक्तियां राह दिखाती प्रतीत होती हैं।
“बीहड़ से गुज़रते हाथियों की तरह,
झाड़ियों को रौंदते हुए,
हटाते हुए पेड़ों को अपने रास्ते से,
तुम भी चलो महान् तपस्या की राह पर।
इसलिए तुम्हें,
संघर्ष करना आना चाहिए” (अनु.वरयाम सिंह )