Acn18.com/उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में गैंगस्टर से नेता बने अतीक अहमद को तीन शूटरों ने गोली मार दी…वो भी मीडिया और पुलिस की मौजूदगी में। हत्या का स्टाइल कुछ वैसा ही था जैसे अतीक खुद अपने विरोधियों को मारता था।
उत्तर प्रदेश में गैंगस्टर और गैंगवॉर कोई नई बात नहीं है। 1970 के दशक में बाहुबली छात्रनेता से विधायक बने रविंद्र सिंह की गोरखपुर स्टेशन पर हत्या हो या 1997 में उनके उत्तराधिकारी वीरेंद्र प्रताप शाही का लखनऊ में सड़क चलते मर्डर…
उत्तर प्रदेश और खासतौर पर पूर्वांचल में हर गली में गैंगस्टर-शूटर आम हैं। लेकिन बड़ा सवाल ये है कि आखिर इतने लोग गैंगस्टर बनते क्यों हैं?
गुंडागर्दी को ग्लैमराइज करने वाली कहानियां कहीं गरीबी का हवाला देती हैं, तो कहीं परिवार पर अत्याचार और अन्याय का…। इन वजहों से कोई व्यक्ति बदला लेने के लिए एक खून तो कर सकता है…मगर ऐसा क्या है जो उसे गैंगस्टर बनाए रखता है?
जवाब है पैसा। लेकिन दबंगई से जमीन कब्जाने, सेटलमेंट और रंगदारी से मिलने वाले पैसे से कहीं बड़ा एक सरकारी सिस्टम भी है जो खासतौर पर UP में गैंगस्टर्स को लुभाता है।
जी हां, गैंगस्टर्स को बाहुबल के साथ धनबल के शिखर पर ले जाने वाला ये सिस्टम है…सरकारी टेंडर।
सड़क बनाने से लेकर बालू निकालने तक या मछली पालने से लेकर रेलवे स्क्रैप तक हर काम का ठेका जारी होता है। UP में बाहुबली की ताकत इसी से आंकी जाती है कि उसके इलाके के कितने टेंडर उसकी मर्जी से खुलते हैं। यानी कितने ठेके उसके चहेतों को मिलते हैं।
आजादी के 76 साल में ये ठेके, सरकारी दफ्तरों से निकलकर ऑनलाइन तो हो गए…मगर सरकारें इनको अपराधियों और गैंगस्टर्स से मुक्त नहीं कर पाईं।
देश में 2020-21 में सरकारों ने कुल 17 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा के कामों के लिए ई-टेंडर जारी किए थे। इनमें से 22% से ज्यादा उत्तर प्रदेश में थे।
जानिए, कैसे UP में सरकारी ठेकों की राजनीति ने अपराधी और अपराधियों के टकराव ने बाहुबली नेता तैयार किए हैं…
पहले समझिए, सरकारी टेंडर में कमाई का गणित…
UP में 2020-21 में जारी हुए 3.83 लाख करोड़ रुपए के ई-टेंडर
देश में कोई भी काम करवाने केंद्र और राज्य सरकारें निजी कंपनियों को ठेका देती हैं। काम चाहे कोई भी हो, उसके लिए उस फील्ड से जुड़ी कंपनियों से टेंडर आमंत्रित किए जाते हैं।
कंपनियां अपने हिसाब से उस काम की लागत, पूरा करने का समय और बाकी ब्योरा टेंडर में देती हैं। संबंधित विभाग सभी टेंडर्स की जांच करता है और तय नियमों पर जिस कंपनी का टेंडर सबसे खरा उतरता है उसे ठेका दे दिया जाता है।
90 के दशक से सरकार ने ज्यादातर ठेके ई-टेंडर के जरिये देना शुरू कर दिया। इसके लिए सरकार ने ऑनलाइन प्रोक्योरमेंट पोर्टल बनाया है।
2020-21 में इस पोर्टल के जरिये सरकारों ने कुल 17.33 लाख करोड़ रुपए के ई-टेंडर जारी किए। इसमें से 77% टेंडर अलग-अलग कामों के लिए थे, जबकि 16% टेंडर सामान की खरीद के लिए थे। कुल टेंडर्स में से 91% ओपन टेंडर थे।
इन ई-टेंडर्स में सबसे बड़ी हिस्सेदारी उत्तर प्रदेश की थी। कुल 22.14% यानी 3.83 लाख करोड़ रुपए के टेंडर्स UP में जारी हुए थे।
टेंडर की पूरी प्रक्रिया में अपराधियों का दखल…UP में ठेकेदार बनने के लिए दबंग बनना पड़ता है
आजादी के पहले से सरकारी निर्माण से लेकर खनन के सारे काम ठेके पर होते आए हैं। आज भी हर तरह की सरकारी खरीद, खनन और निर्माण ठेके पर ही होते हैं।
ये ठेके किसे दिए जाएंगे और कैसे दिए जाएंगे, ये पूरी प्रक्रिया शुरू से ही भ्रष्टाचार के घेरे में रही है। कभी मंत्रियों के प्रभाव, कभी अफसरों की मिलीभगत और कभी बंदूक के जोर पर ठेकों का फैसला होता रहा है।
एक बार ठेका हाथ में आने के बाद सरकारी खजाने से पैसा पूरा लिया जाता है, मगर खर्च 1% भी मुश्किल से होता है।
पहले चुनाव में बाहुबल के इस्तेमाल के बदले अपराधियों को नेता प्रश्रय देते और ईनाम के तौर पर सरकारी ठेके दिलवाते। सरकारी ठेकों से होने वाली कमाई का स्वाद मिलने के बाद इन अपराधियों ने इसे ही आय का मुख्य जरिया बना लिया।
उत्तर प्रदेश में एक दौर ऐसा भी आया था जब ठेकेदार और क्रिमिनल एक दूसरे के पर्यायवाची बन गए थे।
अपराधियों ने ठेकों के हिसाब से खुद के नाम पर या अपने करीबियों के नाम पर कंपनियां तक बना लीं। सरकारी दफ्तरों में मिलीभगत के चलते इन्हें पहले से ही पता होता था कि टेंडर कब जारी होने वाला है।
उसके पहले ही या तो बाकी कंपनियों को डरा-धमकाकर टेंडर भरने ही नहीं दिया जाता था या टेंडर खुलने के समय दबंगई से अधिकारियों को धमकाकर अपनी ही कंपनी के नाम पर टेंडर खुलवाया जाता था।
ई-टेंडर से कम होना था ठेकों पर अपराधियों का प्रभाव…मगर इसने और ज्यादा ऑर्गनाइज्ड कर दिया
सरकार ने ठेका प्रक्रिया में इस तरह की धांधलियों को दूर करने के लिए ही ई-टेंडर प्रक्रिया शुरू की थी।
इसके तहत टेंडर भरने के लिए किसी भी कंपनी को सरकारी दफ्तर में नहीं आना पड़ता था। ऑनलाइन टेंडर भरे जाने के कारण कहीं की भी कंपनी अपने ही शहर से टेंडर भर सकती थी।
टेंडर खुलते भी ऑनलाइन ही थे, ताकि इस दौरान भी अपराधियों को दबंगई का मौका न मिल पाए।
इस पूरी प्रक्रिया में फिजिकल प्रेजेंस जरूरी न होने की वजह से ये माना जा रहा था कि अब ईमानदारी से योग्य कंपनी को ही काम सौंपा जा सकेगा।
लेकिन इस प्रक्रिया में एक पेंच है। ये दिक्कत खास तौर पर निर्माण या खरीद के ठेकों में है और भारत में 93% सरकारी ठेके इन्हीं के होते हैं।
भले ही पूरी टेंडर भरने से ठेका अवॉर्ड होने तक की पूरी प्रक्रिया ऑनलाइन हो जाए, लेकिन ये प्रक्रिया पूरी होने के बाद जिस कंपनी को काम अवॉर्ड हुआ हो उसे उस इलाके में आना ही होगा जहां काम होना है।
अपराधी यहीं इंतजार करते और आने वाले कंपनियों के प्रतिनिधियों का अपहरण, मार-पीट और फिरौती के तौर पर ठेके की रकम का कुछ परसेंटेज लेना शुरू हो गया।
आज सभी ई-टेंडर्स के लिए एक सेंट्रलाइज्ड पोर्टल है। यहीं से केंद्र सरकार के तमाम विभाग और राज्य सरकारें अपने टेंडर जारी करते हैं।
लेकिन अब ठेकों में रुचि रखने वाले अपराधी भी इतने शातिर और हाईटेक हो गए हैं कि उनकी कंपनियां भी ऑनलाइन टेंडर भरती हैं।
उनका आतंक अब इसी बात में माना जाता है कि या तो उनके इलाके में उनकी ही कंपनी ऑनलाइन टेंडर भरती है या टेंडर भरने वाली हर कंपनी ये जानती है कि काम मिला तो अपराधी को उसका परसेंटेज चुपचाप देना होगा।
योगी आदित्यनाथ के गोरखपुर में रेलवे स्क्रैप के ठेकों से शुरू हुई थी UP में गैंगवॉर की कहानी
1970 के दशक में जब पूरा देश जेपी आंदोलन में युवाओं का क्रांतिकारी चेहरा देख रहा था, उस समय UP के मौजूदा CM योगी आदित्यनाथ के शहर गोरखपुर में युवा एक नई कहानी लिख रहे थे।
इस दौर ने राजनेताओं को युवाओं की ताकत का अहसास करा दिया था और इसी वजह से विश्वविद्यालयों में राजनीति की नर्सरी खुल चुकी थी।
गोरखपुर विश्वविद्यालय की राजनीति में जाति का प्रभाव ज्यादा था। ब्राह्मण और ठाकुर खेमे आमने-सामने रहते थे।
उस दौर में ब्राह्मण खेमे के अगुआ होते थे हरिशंकर तिवारी। ठाकुर खेमे के नेता रविंद्र सिंह होते थे। केंद्र में बैठे नेता भी इन छात्र नेताओं को शह देते।
झगड़े निपटाने, प्रॉपर्टी विवाद सुलझाने के लिए दोनों खेमों के दरबार लगते थे। नेताओं के प्रश्रय की वजह से स्थानीय पुलिस और प्रशासन भी कुछ नहीं कहता।
उस दौर में केंद्र में रेल मंत्री अक्सर उत्तर प्रदेश से ही होते थे। इन नेताओं ने अपने चहेते छात्रनेताओं को ईनाम के तौर पर रेलवे स्क्रैप के ठेके दिलाना शुरू कर दिया।
ये रेलवे स्क्रैप के ठेके धीरे-धीरे बाहुबलियों के लिए प्रतिष्ठा की लड़ाई बन गए थे।
वो दौर जब गोरखपुर के गैंगवॉर की कहानी BBC रेडियो पर सुनाई जाती थी
गोरखपुर और आस-पास के इलाके में 1970 से 80 के दशक में गैंगवॉर रोज की बात हो गई थी। छात्रनेता से रविंद्र सिंह 1978 में विधायक भी बन गए। लेकिन इसके कुछ ही दिन गोरखपुर रेलवे स्टेशन पर ही उनकी हत्या हो गई।
रविंद्र सिंह के खास रहे वीरेंद्र प्रताप शाही को ठाकुर खेमे ने अपना नेता मान लिया था। उन्हें ‘शेर-ए-पूर्वांचल’ तक कहा जाता था। ये वो दौर था जब आए दिन सड़कों पर गोलियां और बम चलना आम बात हो गई थी।
इन गैंगवॉर्स की वजह से ही गोरखपुर का नाम पूरी दुनिया में फैल रहा था। उस दौर में BBC रेडियो पर भी गोरखपुर के इन खूनी किस्सों का प्रसारण होता था।
हरिशंकर तिवारी रहे हर सरकार में मंत्री…आज तक कोई केस साबित नहीं हुआ
1985 में हरिशंकर तिवारी विधायक बन गए। खास बात ये थी कि राज्य में सरकार भले ही किसी भी पार्टी की हो, हरिशंकर तिवारी मंत्री जरूर होते थे।
हरिशंकर तिवारी हर पार्टी के करीबी रहे। उनके फेसबुक पेज से ली गई इन तस्वीरों में देखिए वो बड़े नेताओं के कितने करीबी रहे…
उन पर केस तो कई दर्ज हुए, लेकिन कोई भी आरोप साबित नहीं हुआ। वो 6 बार विधायक बने। आखिरकार कभी उनके ही चेले रहे राजेश त्रिपाठी से चुनाव हार गए।
आज उनके दो बेटे और भांजे राजनीति में हैं। कभी बड़े बेटे कुशल बसपा से सांसद, तो छोटे बेटे विनय तिवारी बसपा से ही विधायक रहे। भांजे गणेश शंकर तो बसपा सरकार के समय विधान परिषद में सभापति रहे। मगर आज तीनों ही सपा के साथ हैं।
वीरेंद्र प्रताप शाही को सरेराह गोलियों से छलनी किया था श्रीप्रकाश शुक्ला ने
हरिशंकर तिवारी के गुट से ही निकले अमरमणि त्रिपाठी ने तिवारी के धुर विरोधी वीरेंद्र प्रताप शाही को चुनाव में हराया था।
वीरेंद्र प्रताप शाही ने राजनीति से तौबा कर ली थी। मगर दबंगई नहीं छोड़ी थी। 1990 के दशक में उत्तर प्रदेश में अपराधियों की नई पौध तैयार हो चुकी थी। इसी में तेजी से उभरता नाम था…श्रीप्रकाश शुक्ला।
सुपारी किलिंग से शुरुआत करने वाले श्रीप्रकाश शुक्ला के बारे में कहा जाता है कि बहन को छेड़ने वाले का मर्डर कर उसने अपराध की दुनिया में कदम रखा था।
मगर जल्दी बड़ा डॉन बनने के लिए उसने खुलेआम ऐलान किया था कि वो जुर्म के मठाधीश माने जाने वाले हरिशंकर तिवारी और वीरेंद्र प्रताप शाही को जान से मार देगा।
हरिशंकर तिवारी उस समय राज्य सरकार में मंत्री थे। बताया जाता है कि श्रीप्रकाश के मामा को उन्होंने अपने साथ कर लिया था और उनका इस्तेमाल ढाल की तरह करते थे।
वीरेंद्र प्रताप शाही ने श्रीप्रकाश शुक्ला की धमकी के बावजूद खुलेआम घूमना नहीं छोड़ा था। 1997 में लखनऊ के इंदिरा नगर इलाके में श्रीप्रकाश शुक्ला ने शाही को गोलियों से छलनी कर दिया।
CM की सुपारी लेने वाला श्रीप्रकाश शुक्ला……उसी के लिए बनी थी पहली बार UP STF
श्रीप्रकाश शुक्ला ने UP के तत्कालीन CM कल्याण सिंह की सुपारी ले ली थी। कल्याण सिंह सरकार पहले ही अपराधियों के सफाये में जुटी थी।
श्रीप्रकाश शुक्ला के बढ़ते कद को देखते हुए ही पहली बार UP पुलिस ने गैंगस्टर्स से निपटने के लिए स्पेशल टास्क फोर्स (STF) बनाई थी।
STF ने श्रीप्रकाश शुक्ला का गाजियाबाद में एनकाउंटर भी कर दिया।
गोरखपुर के गुटों से ही निकले मुख्तार अंसारी, बृजेश सिंह और धनंजय सिंह जैसे बाहुबली
हरिशंकर तिवारी के शूटरों में गिने जाने वाले साधू सिंह के साथी थे मुख्तार अंसारी। साधू सिंह ने प्रॉपर्टी के विवाद में गाजीपुर के बृजेश सिंह के पिता की हत्या कर दी थी।
साथ में रहने की वजह से मुख्तार अंसारी भी बृजेश के निशाने पर आ गए थे। इन दोनों की दुश्मनी ने गाजीपुर और मऊ के इलाके में अपराध और गैंगवॉर की नई कहानी लिखी।
गोरखपुर से शुरू हुए गैंग्स से ही मऊ में मुख्तार अंसारी, बृजेश सिंह, गाजीपुर से रमाकांत, उमाकांत और जौनपुर से धनंजय सिंह जैसे बाहुबली निकले जो आज भी सरकारी ठेकों से लेकर हर काम में अपनी दबंगई कायम किए हुए हैं।
अतीक अहमद ने गुंडागर्दी के जरिये शुरू किया था प्रॉपर्टी कब्जाने का काम…रसूख बढ़ा तो ठेकों में भी अपनी ही चलाई
प्रयागराज में अतीक अहमद ने अपने अपराध के साम्राज्य का विस्तार आतंक के दम पर किया था। वो प्रॉपर्टी कब्जा करने में सबसे तेज माना जाता था। रसूख बढ़ा तो प्रयागराज और उसके आस-पास के पूरे इलाके में सरकारी ठेकों में भी उसकी मर्जी चलने लगी।
जिस उमेश पाल हत्याकांड में उसके बेटे असद का एनकाउंटर हुआ, वो उसी राजू पाल हत्याकांड में गवाह था जिसका मुख्य आरोपी अतीक अहमद था।
अतीक अहमद के भाई अशरफ को हरा विधायक बने राजू पाल की सरेराह हत्या कर दी गई थी। राजू पाल उस समय खुद क्वालिस गाड़ी चला रहे थे उनके साथ उनके मित्र की पत्नी भी थीं।
उनकी क्वालिस के पीछे उनके समर्थकों की गाड़ी चल रही थी। उसी समय करीब दो दर्जन हमलावरों ने राजू पाल की गाड़ी पर गोलियों की बौछार कर दी थी। जब समर्थक राजू पाल को एक टेंपो में डालकर अस्पताल ले जा रहे थे तो हमलावरों ने इस टेंपो का पीछा कर उस पर भी गोलियां चलाईं थी।
माना जाता है कि राजू पाल की हत्या के बाद से ही अतीक को मिलने वाला राजनीतिक संरक्षण घटने लगा था। इसी के बाद से उसे चुनावों में लगातार हार मिली और अंतत: वह खुद भी सलाखों के पीछे पहुंच गया।
अतीक की हत्या के पीछे भी हो सकती है वर्चस्व की लड़ाई
अतीक और उसके भाई अशरफ पर गोलियां चलाने वाले तीनों हमलावर पुलिस की गिरफ्त में हैं और इस मामले की न्यायिक जांच शुरू हो गई है।
अभी ये स्पष्ट नहीं है कि इन तीनों युवकों ने अतीक की हत्या किस वजह से की। मगर ये माना जा रहा है कि कमजोर पड़ते अतीक को मारकर कोई विरोधी गैंग अपना वर्चस्व कायम करने की कोशिश कर सकता है।