आगामी आठ मार्च को हम विश्व महिला दिवस मनाएंगे। किसी फिल्मी कलाकार या खेल हस्ती को ब्रांड एंबेसडर बनाएंगे। किसी को स्वच्छता का ब्रांड एंबेसडर नियुक्त करेंगे। राज्य सरकारें भी ऐसी फिल्मी हस्तियों को ब्रांड एंबेसडर चुनेंगीं, जिनसे चुनावों में वोट बैंक के रूप में ट्विटर के जरिये प्रचार प्रसार करवा सकें।
इन अदृश्य महिलाओं के बहुत से रूप हैं। नायक भोपा घुमंतू समुदाय है। जो फड़ बाचने का काम करते हैं। फड़ एक कपड़े का थान होता है, जिस पर बहुत से चित्र बने होते हैं। ये चित्र किसी जीवन गाथा से जुड़े रहते हैं। इन कथाओं में लोक देवता पाबूजी, रामदेव जी और देवनारायण के जीवन के किस्से होते हैं।
भोपा -भोपी उन चित्रों को देखकर अपने लोक वाद्य ‘रावण हत्थे’ की मधुर धुन पर कथा गाकर सुनाते हैं। नाचते हैं। जिसे हम आजकल स्टोरी टेलिंग कहते हैं, वह काम तो ये लोग सदियों से करते आ रहे हैं। अनपढ़ भोपी महिला एक रात में औसतन 12 से 14 हजार शब्द गाती है। भोपे को उन शब्दों को एक बार गाना पड़ता है, जबकि भोपी को हर शब्द को दो बार गाना होता है। जिससे गीत में लय बनी रही उसको सुनने वालों को मिठास का अहसास हो।
ग्रामीण महिलाओं का चलता-फिरता ब्यूटी पार्लर गवारिया घुमंतू समुदाय की महिलाएं िसर पर टोकरा रखकर सुबह पहले बगैर कुछ खाए फेरी पर निकल लेती हैं। उनके टोकरे में महिलाओं से जुड़ा समान रहता है। टिकली, बिंदी से लेकर कड़े, चूड़े- चूड़ियां, मालाएं व महिलाओं के अंडर गारमेंट्स। उनके टोकरे का वजन 20 से 30 किलो के बीच रहता है, जिसे वह अपने सिर पर उठाकर दिन भर घूमती है। वे केवल सामान ही नहीं देतीं, बल्कि यह भी बताती हैं कि शहर में महिलाएं कैसे रहती हैं, गांवों की महिलाएं बड़े चाव से सुनती हैं, क्योंकि उनके लिए अभी दूर की बात है।
नट डफ बजाता है। नटनी रस्सी पर चलती है। तरह- तरह के करतब दिखाती है। न सिर पर कोई पल्लू और न माथे पर घूंघट। बेधड़क और बेखौफ। जबकि इन करतबों को देखने वाली महिलाएं घूंघट में कैद रहती हैं। पीढ़ियों से वे लोग ये काम करते आ रहे हैं। किंतु उन महिलाओं का कहीं जिक्र नहीं होता। भाट समुदाय के लोग जिन कठपुतलियों को नचाते हैं, उनके पेंट करने से लेकर श्रृंगार करने, उनकी वेशभूषा तय करने का कार्य भाट महिला ही करती है। कालबेलिया समुदाय की महिलाओं को महज काले व लाल रंग की ड्रेस तक सीमित कर देते हैं। ज्यादा होता है, तो बस सजी-धजी नर्तकी के रूप में देखते हैं। उसके रोजमर्रा के जीवन के अन्य पक्षों की कोई बात ही नहीं होती। कालबेलिया महिला सुबह फेरी पर जाती है। उसके पास विभिन्न प्रकार की जड़ी- बूटियां होती हैं। वह बहुत से नुस्खे जानती है। महिलाओं को दुर्लभ उत्पाद सुरमा देती है। वह अपने संगीत के जरिये मानसिक उपचार का कार्य करती हैं। गांवों में महिलाएं उनसे हालरिया सुनती हैं। फाग सुनती हैं। लूर सुनती हैं। बच्चे के बधावे सुनती हैं। ऐसी मान्यता है, जोगण जब गीत गाएगी तो बच्चे की उम्र बढ़ जाएगी।
गाड़िया लुहार समुदाय की महिला की जिम्मेदारी घण कूटने की रहती है। अनुभवी लुहार लोहे को गढ़ने का काम करता है। वे दिन भर लोहा पीटती हैं और सुबह- सुबह नजदीक गांव व ढाणी में फेरी पर जाने का काम भी उन्हीं महिलाओं का रहता है। उसका कहीं कोई योगदान शामिल नहीं होता। पशुचारक घुमंतू समुदाय की महिलाओं खासकर रायका- रैबारी समुदाय की महिलाओं के कार्य की गिनती कहीं नहीं है। गर्भवती हो या बूढ़ी हो। जवान हो या बच्ची। वर्ष के आठ से नौ महीने पशुओं के साथ घूमते हुए ही बिताने हैं।
हम पहले तो यूरोप का अनुसरण करते हैं। उनके विचार, परंपराओं, भाषा, पहनावे की नकल करते हैं। जब उसमें दिक्कत आती है, तो फिर उन्हीं के चश्मे से नारीवादी बहस का हम चोला ओढ़ते हैं। ये छद्म बहस है। ये महिलाएं इस नारीवादी बहस के किसी चरण में शामिल नहीं हैं और होना भी नहीं चाहतीं। उनके यहां समानता, स्वतंत्रता, न्याय शब्द नहीं है, बल्कि रोजमर्रा के जीवन की अनिवार्यता है। जहां स्त्री पुरुष के कार्यों में भेद नहीं हैं। हमें समय रहते कोशिश करनी चाहिए, ताकि हमारे यहां मौजूद 1,200 से ज्यादा अदृश्य घुमंतू समुदायों की महिलाओं के कार्यों पर चर्चा हो। उनकी जीवन दृष्टि को समझने का प्रयास करें और उनसे प्रेरणा लेकर बकाया समुदायों को भी एक भरोसा मिल सके।