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रथ परिक्रमा का समापन, धूमधाम से निभाई गई भीतर रैनी की रस्म, ग्रामीणों को मनाने के बाद रथ वापस लेकर पहुंचे राजा

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जगदलपुर. बस्तर दशहरा की प्रसिध्द रस्म रथ परिक्रमा का मंगलवार को विधिवत समापन हुआ. रथ परिक्रमा की आखिरी रस्म बाहर रैनी के तहत माड़िया कस्बे के ग्रामीणों द्वारा परम्परानुसार आठ पहियों वाले रथ को कुम्हड़कोट ले जाया जाता है. जिसके बाद राज परिवार द्वारा कुम्हड़कोट पहुंचकर ग्रामीणों को मनाकर और उनके साथ नवाखानी खीर खाकर रथ वापस लाया जाता है.

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बस्तर में बड़ा दशहरा विजयादशमी के एक दिन बाद बनाया जाता है. वहीं भारत के अन्य स्थानों में मनाये जाने वाले रावण दहन के विपरीत बस्तर में दशहरे का हर्षोल्लास रथोत्सव के रूप में नजर आता है. बस्तर में प्राचीन काल में बस्तर को दण्डकारण्य के नाम से जाना जाता था. जो की रावण की बहन सुर्पनखा की नगरी थी. जिस वजह से बस्तर में रावण दहन की प्रथा प्रचलित नहीं है.

बस्तर के राजा पुरुषोत्तमदेव द्वारा तिरुपति से रथपति की उपाधि ग्रहण करने के बाद बस्तर में दशहरे के अवसर पर रथ परिक्रमा की प्रथा आरम्भ की गई, जो कि आज तक अनवरत चली आ रही है. दस दिनों तक चलने वाले रथ परिक्रमा के आखिरी दिन भीतर रैनी की रस्म पूरी की गई. जिसमे परम्परानुसार माड़िया जाति के ग्रामीण शहर के मध्य स्थिति सिरहासार भवन से रथ को चुराकर कुम्हड़कोट ले जाते हैं. इस दौरान बस्तर राजा ग्रामीणों के साथ नवाखानी खीर खाते है. जिसके बाद राज परिवार द्वारा ग्रामीणों को समझाबुझाकर रथ को वापस शहर लाया जाता है.

दरअसल, प्राचीन मान्यताओं के अनुसार 75 दिनों तक चलने वाले इस बस्तर दशहरा उत्सव में हर कस्बे (जाति) को कुछ ना कुछ जिम्मेदारी दी जाती है, इसमें माड़िया जाति के ग्रामीण छूट जाते हैं, जिससे नाराज इस जनजाति के लोग राजमहल से रथ को चुरा ले जाते हैं. इसके बाद राजा ग्रामीण राजा से मांग करते हैं कि आप अपने राजसी ठाठ-बाट के साथ आएं, हमारे साथ नवाखानी खाएं. जिसके बाद सब मिलकर रथ को वापस राजमहल ले जाते हैं.

 

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