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58 दिन में बनता है भगवान जगन्नाथ का रथ:14 साल ट्रेनिंग, परीक्षा के बाद पुश्तैनी कारीगर कहलाता है रथ का महाराणा

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Acn18.com/ओडिशा के पुरी में भगवान जगन्नाथ मंदिर से 3 किलोमीटर दूर है गुंडिचा मंदिर। इन दोनों मंदिरों के बीच के रास्ते को बड़दंड कहते हैं। मान्यता है कि रथयात्रा के दिनों में इस रास्ते से गुजरने भर से भगवान जगन्नाथ का आशीर्वाद मिल जाता है।

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पुरी में 20 जून से भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा का महोत्सव चल रहा है। इन दिनों यहां हर वक्त भीड़ रहती है। 9 दिन गुंडिचा मंदिर में मौसी के पास रहने के बाद भगवान जगन्नाथ, भाई बलराम और बहन सुभद्रा के साथ कल यानी 28 जून को अपने घर लौटेंगे। अभी जगन्नाथ मंदिर का आसन खाली है, इसलिए भक्त दर्शन के लिए गुंडिचा मंदिर जा रहे हैं।

गुंडिचा मंदिर के सामने लाल, पीले, हरे, काले, नीले चटक रंगों और अद्भुत चित्रकारी से सजे जगन्नाथ, बलराम और सुभद्रा के रथ खड़े हैं। विशाल और भव्य। मन में सवाल आया कि इन्हें कौन बनाता होगा।

हमने बनाने वाले कारीगरों को तलाशा, पता चला कि सभी रथ यात्रा में व्यस्त हैं। छोटी-छोटी मुलाकात को तैयार हुए। बताया कि रथ बनाने में 58 दिन लगते हैं। 162 कारपेंटर के अलावा कई लोहार और चित्रकार इन पर मेहनत करते हैं। हर काम तय विधि-विधान और मुहूर्त से होता है।

हमारा पहला सवाल था- भगवान जगन्नाथ का रथ कौन बनाता है?
जवाब मिला- रथ बनाने वाले की पहली योग्यता उसका पुश्तैनी होना है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी एक ही परिवार के लोग ये काम कर रहे हैं। परिवार में भी वही व्यक्ति रथ बनाता है, जिसे मंदिर के प्रमुख सेवक इस काबिल समझते हैं।

कारपेंटर बालकृष्ण इन्हीं में से एक हैं। वे बताते हैं, ‘मेरे दादा, उनके भी दादा और शायद उनके भी दादा रथ बनाने का काम करते थे। 12-14 साल काम सीखने के बाद एक परीक्षा होती है। इसमें रथ बनाने के तरीके, कारीगरी और भगवान जगन्नाथ की भक्ति से जुड़े सवाल होते हैं। परीक्षा में पास होने पर मंदिर के प्रमुख सेवक परिवार के उस सदस्य को धोती पहनाते हैं। फिर वो रथ का महाराणा यानी कारपेंटर बन जाता है।’

5 तरह की लकड़ियों का इस्तेमाल, एक रथ के लिए 54 कारपेंटर
भगवान जगन्नाथ का रथ डिजाइन करने का जिम्मा विजय महापात्रा के पास है। वे 1972-73 से ये काम कर रहे हैं। विजय बताते हैं, ‘रथ में 5 तरह के पेड़ों की लकड़ियां लगाई जाती हैं। इनके नाम धौरा या नीम, फासी, सहजा, मही और सिमली हैं। हर लकड़ी से रथ का अलग हिस्सा तैयार होता है। एक रथ बनाने में 54 महाराणा यानी कारपेंटर लगते हैं। इसमें 27 प्रमुख महाराणा और मदद के लिए 27 सहायक होते हैं।’

भगवान जगन्नाथ का रथ सबसे बड़ा, हाथ से नापते हैं लंबाई-चौड़ाई
नरसिंह महापात्रा बलभद्र रथ के प्रमुख महाराणा हैं। वे बताते हैं, ‘रथ का बेस चौकोर होता है, यानी लंबाई और चौड़ाई बराबर। तीनों रथों की माप अलग-अलग होती है। सबसे ऊंचा रथ भगवान जगन्नाथ का है। इसका नाम नंदीघोष है। इसकी ऊंचाई 23 हाथ होती है। बलभद्र का रथ 22 हाथ और सुभद्रा का रथ 21 हाथ ऊंचा होता है।’

रथ बनाने के तरीके का जिक्र जय जगन्नाथ नाम की किताब में है। ये किताब नम्रता चड्ढा ने लिखी है। वे रथ यात्रा की कॉमेंटेटर भी हैं। किताब के मुताबिक, भगवान जगन्नाथ के रथ की लंबाई-चौड़ाई 34 फीट 6 इंच और ऊंचाई 45 फीट 6 इंच होती है। बलभद्र के रथ की लंबाई-चौड़ाई 33 फीट और ऊंचाई 45 फीट होती है। सुभद्रा के रथ की लंबाई-चौड़ाई 31 फीट 6 इंच और ऊंचाई 44 फीट 6 इंच होती है।

हालांकि इस माप के बारे में पूछने पर रथ बनाने वाले पारंपरिक कारपेंटर कहते हैं, ‘रथ विधि-विधान और नीति से बनता है। सब कुछ पारंपरिक है, तो फिर नापने का तरीका भी पारंपरिक ही होगा। इसलिए हाथ की माप ही सही है।’

865 पेड़ों की लकड़ियों से तैयार होते हैं रथ
भगवान जगन्नाथ के रथ के चीफ डिजाइनर विजय महापात्रा ने बताया था कि रथ बनाने में फासी, धौरा, सिमली, सहजा और मही लकड़ी इस्तेमाल होती है और हर लकड़ी से रथ का अलग हिस्सा बनता है। बलभद्र के रथ के प्रमुख महाराणा नरसिंह महापात्रा इसे और डिटेल में बताते हैं।

वे कहते हैं, ‘सबसे मजबूत लकड़ी धौरा से चक्र यानी पहिया बनता है। बनाने में सबसे मुश्किल भी यही होता है। जरा सी चूक हुई, तो पूरे रथ का बैलेंस बिगड़ जाएगा।’

‘उसके बाद फासी से बनता है पहिए का एक्सल यानी वह हिस्सा जिससे पहिया रथ से जुड़ा होता है। सिमली से रथ के ऊपर का हिस्सा बनता है। सिमली के साथ मही की लकड़ी भी इस्तेमाल होती है, पर इसके बिना भी काम चल जाता है। हल्के पार्ट्स बनाने के लिए सहजा की लकड़ी इस्तेमाल होती है। रथों को बनाने में 865 पेड़ों की लकड़ी लग जाती है।’

50 टन लोहा और 300 किलो पीतल का इस्तेमाल
माना जाता है कि जगन्नाथ यात्रा के लिए बनने वाले रथों में कोई धातु नहीं लगाई जाती। पूरा काम लकड़ी का होता है, पर ऐसा नहीं है। नरसिंह महापात्रा बताते हैं, ‘रथ में लकड़ियां सबसे ज्यादा इस्तेमाल होती हैं, लेकिन लोहा और पीतल भी बड़ी मात्रा में इस्तेमाल होता है। करीब 50 टन लोहा और 300 किलो पीतल लग जाता है। लोहा रथ के पहियों और जोड़ों में लगता है। पीतल भगवान जगन्नाथ, सुभद्रा और बलभद्र के आसन पर इस्तेमाल होता है। आसन को कनमुनि कहते हैं। रथ के ऊपर रखे कलश भी पीतल के होते हैं।’

लोहे का काम लोहारों के पास है। रथ बनाने वाले लोहारों के सिर्फ 4 परिवार बचे हैं। वे भी एक ही परिवार के वंशज हैं।

क्या रथ में एक भी कील नहीं लगती? जवाब में नरसिंह महापात्रा ने बताया, ‘हां, कील तो नहीं लगती, लेकिन जोड़ने के लिए छल्लों का इस्तेमाल होता है। उन्हें कील की तरह इस्तेमाल किया जाता है।’

7 समुदाय के लोग तैयार करते हैं रथ
बलभद्र रथ के कारपेंटर बालकृष्ण बताते हैं, ‘रथ बनाने में सात समुदाय के लोग दिन-रात मेहनत करते हैं।’ इन समुदायों में सबसे ऊपर विश्वकर्मा हैं, ये भी तीन उपसमुदाय में बंटे होते हैं। काम के आधार पर इनका विभाजन होता है। हर रथ में तीन प्रमुख महाराणा होते हैं। सभी की अपनी टीम होती है।

रथ तैयार करने वाले सात समुदाय…

पहला: महाराणा यानी विश्वकर्मा। ये तीन तरह के होते हैं।
प्रमुख महाराणा और सुतारी महाराणा- इनका काम रथ के हर हिस्से की नाप रखना होता है। रथ के हर हिस्से की नाप तय है, उसे इंच-आधा इंच भी इधर-उधर नहीं कर सकते। फिर आते हैं तली महाराणा। इनका काम होता है, रथ के तैयार पार्ट्स को जोड़ना।
दूसरा: भोई सेवक, इनका काम है भारी-भरकम लकड़ियों को रथ निर्माण की जगह पर पहुंचाना। लकड़ियां सुरक्षित रहें, इसके लिए छांव का इंतजाम भी यही लोग करते हैं।
तीसरा: करतिया, ये लोग लकड़ी चीरने का काम करते हैं।
चौथा: लोहार, ये कांटे और छल्ले तैयार करते हैं, इनका काम लोहे को आकार देना है।
पांचवां: रूपकार, इनका काम लकड़ी पर कलाकृतियां उकेरना है।
छठा: दर्जी, जो रथ में कपड़े का काम करते हैं।
सातवां: चित्रकार, रथ में रंग भरना और पारंपरिक चित्र बनाना इनका काम है।

लकड़ियों के आने और काटने का काम भी मुहूर्त से
भगवान जगन्नाथ के रथ के चीफ डिजाइनर विजय महापात्रा ने बताया, ’58 दिन और रात में रथ बनकर तैयार होता है। पारंपरिक पूजा के बाद अक्षय तृतीया से इसका काम शुरू होता है। लकड़ियों के पुरी पहुंचने और उनकी चिराई के लिए भी मुहूर्त तय होता है।’

‘बसंत पंचमी के दिन लकड़ियां पुरी पहुंचती हैं। रामनवमी पर उन्हें आरी से काटने का काम शुरू होता है। रथ यात्रा से एक दिन पहले यानी नेत्र उत्सव के दिन रथ तैयार करने होते हैं। इन्हें बनाने की जगह भी तय है। जगन्नाथजी के प्रमुख मंदिर से कुछ दूर गजपति महल के सामने इनका निर्माण होता है।’

भगवान जगन्नाथ के नंदीघोष में 16 पहिए, सबके अलग-अलग नाम
भगवान जगन्नाथ के रथ का नाम नंदीघोष है। इसमें 16 पहिए होते हैं। हर पहिए की ऊंचाई 6 फीट है। ध्वजा का नाम त्रैलोक्यमोहिनी है। रथ में 742 लकड़ी के टुकड़ों का इस्तेमाल होता है। इसे खींचने के लिए इस्तेमाल होने वाली रस्सी को शंखचूड़ कहते हैं। रथ के सारथी का नाम दारुक है।

जगन्नाथजी के मंदिर में हनुमानजी का भी एक मंदिर है। मान्यता है कि रथ की सफेद रंग की ध्वजा पर हनुमानजी विराजते हैं। इसलिए जगन्नाथजी के रथ का नाम कपिध्वज भी है। रथ के 16 पहियों के नाम हैं- विष्णुबुद्धि, विभूति, प्रज्ञा, धि, ज्ञान, प्रेम, आसक्त, रति, केलि, सत्य, सुष्वती, जागृति, तुरीय, आम, अणिमा और निर्वाण।

यात्रा के बाद तोड़ देते हैं रथ, लकड़ी भक्त ले जाते हैं
रथ बनाने के लिए लकड़ियां ओडिशा के मयूरभंज, गंजाम और क्योंझर जिले के जंगलों से आती हैं। इसके लिए वन विभाग के अधिकारी मंदिर को सूचना भेजते हैं। फिर पुजारी जंगल में जाते हैं। पेड़ों की पूजा करते हैं। इसके बाद सोने की कुल्हाड़ी से पेड़ पर कट लगाया जाता है। पेड़ के गिरने के बाद भी उसकी पूजा की जाती है।

यात्रा के बाद रथ तोड़ दिए जाते हैं। ये काम भी इन्हें बनाने वाले कारपेंटर ही करते हैं। टूटने के बाद रथों की लकड़ियां भक्त ले जाते हैं। अगर दूसरे मंदिरों से डिमांड आती है, तो रथों के पहिए उन्हें दे दिए जाते हैं।

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