Acn18.com/छत्तीसगढ़ में बस्तर के झीरम में हुए नक्सल हमले को आज 10 साल पूरे हो गए हैं। समय बीत गया, लेकिन झीरम के जख्म आज भी ताजा हैं। 25 मई 2013 का वो दिन जब नक्सलियों ने कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर हमला किया था। इसमें कांग्रेस नेता महेंद्र कर्मा, विद्याचरण शुक्ल समेत कई दिग्गज नेताओं की जान गई थी। हमले में कई जवानों ने भी अपनी शहादत दी, तो कई घायल भी हुए थे।
इन्हीं में से एक जवान सफीक खान हैं। जिन्हें नक्सलियों की गोली लगी थी। हालांकि, भाग्य ने साथ दिया और उनकी जान बच गई। लेकिन, नक्सलियों की चलाई गोली आज भी उनके पेट में फंसी हुई है। जो हर दिन उस नरसंहार को याद दिलाती है। सफीक कहते हैं, करवट लो तो दर्द इतना होता है कि झीरम हमले का वो खौफनाक मंजर याद आ जाता है। अगर गोली निकाल ली तो मैं अपंग हो जाऊंगा। कमर से नीचे का सारा अंग काम करना बंद कर देगा।
सुनिए सफीक की जुबानी, झीरम हमले की पूरी कहानी
मैं उत्तर प्रदेश के हमीरपुर जिले का रहने वाला हूं। साल 2007 से महेंद्र कर्मा के साथ था। उनकी सुरक्षा में तैनात था। कर्मा मुझे अपने घर का सदस्य मानते थे। बाकियों की तुलना में मैं उनके ज्यादा करीब था। 25 मई साल 2013 को महेंद्र कर्मा का पूरा काफिला झीरम होते हुए जगदलपुर की तरफ आ रहा था। मैं जिस वाहन में बैठा था उसके ठीक सामने वाले वाहन में महेंद्र कर्मा समेत अन्य नेता थे।
जैसे ही हम झीरम घाटी में टर्निंग पॉइंट पर पहुंचे वहां चारों तरफ से वाहनों पर अंधाधुंध गोलियां चलनी शुरू हो गई थी। जिस बुलेट प्रूफ गाड़ी में महेंद्र कर्मा सवार थे उस गाड़ी में नक्सलियों ने ताबड़तोड़ फायरिंग की। गोलियों की बौछार इतनी थी कि गाड़ी हिलने लगी थी। हम सब जवान भी गाड़ी में ही मौजूद थे। इसी बीच एक गोली गाड़ी की बॉडी को चीरते हुए मेरी कमर पर लगी। मेरे साथ बैठे एक दूसरे जवान को भी गोली लगी, जिसकी अंतड़ियां तक बाहर आ गई थी। मेरी आंखों के सामने ही उसने दम तोड़ दिया था।
गाड़ी के अंदर मैं दर्द से कराह रहा था। फिर किसी तरह से बाहर निकला और नीचे लेटने की कोशिश की। तब तक महेंद्र कर्मा भी अपनी गाड़ी में ही बैठे थे। चंद मिनट के अंदर हथियारों से लैस कुछ वर्दीधारी नक्सली मेरे पास आए। मुझे उठाकर ऊपर टेकरी में लेकर गए। जहां उनका एक लीडर बैठा हुआ था। उसका नाम क्या था मैं नहीं जानता। उसने मुझे धमकाते हुए कहा तुम लोगों ने हमारे कितने लोगों को मारा है। इतने में ही वायरलेस से उसके पास कुछ मैसेज आया और वह दूसरी तरफ चला गया था।
मैं वहीं लेटा हुआ था। फिर कुछ देर बाद महिला नक्सली मेरे पास आईं। मैंने उससे पानी मांगा, उन्होंने मुझे पानी पिलाया और वहीं लेटे रहने को कहा। हालांकि थोड़ी देर बाद वे भी वहां से चली गईं थी। गोली लगने की वजह से मुझे दर्द इतना हो रहा था कि मैं पैरों के बल खड़ा भी नहीं हो रहा था। मुझे कर्मा जी की चिंता थी। धीरे-धीरे रेंगते हुए मैं फिर गाड़ी के पास पहुंचा। तब देखा महेंद्र कर्मा भी गाड़ी से नीचे उतर कर जमीन पर लेट गए थे। मैंने उनसे बात की तो उन्होंने कहा मैं ठीक हूं। जब मैंने बताया कि मुझे गोली लगी है तब भी उन्हें मेरी ही चिंता थी। महेंद्र कर्मा ने मुझसे कहा पीछे की गाड़ी का दरवाजा खोल और अंदर बैठ जा।
इस बीच थोड़ी देर के लिए फायरिंग रुकी थी। उसी समय कुछ नक्सली पहुंचे जो महेंद्र कर्मा को अपने साथ जंगल की तरफ लेकर चले गए। फिर कुछ देर बाद गोलियों की आवाज आई। मुझे एहसास हो गया कि नक्सलियों ने उन्हें मार दिया है। मैं अधमरा उसी जगह पर पड़ा हुआ था। जहां तक मेरी नजर जा रही थी सिर्फ लाशें ही लाशें दिख रही थी। महेंद्र कर्मा को मारने के बाद नक्सली मौके से चले गए थे। उन्होंने हमारे कुछ हथियार भी लूट लिए थे। कुछ देर बाद बैकअप फोर्स आई। फिर मेरे साथ अन्य घायलों को अस्पताल लाया गया। मेरी स्थिति काफी नाजुक थी।
मुझे पहले रायपुर रेफर किया गया। जहां कुछ दिनों तक इलाज चलता रहा। हालत में सुधार नहीं आया तो दिल्ली रेफर किया गया था। कमर के साइड में लगी गोली पेट के अंदर फंस गई थी। डॉक्टरों ने कह दिया था गोली निकाले तो नसें काटनी पड़ेगी। जिससे तकलीफ और बढ़ेगी। कमर के नीचे का अंग काम करना बंद कर देगा। अपंग हो जाओगे। इसलिए गोली नहीं निकाली गई।
पेट में गोली फंसे आज 10 साल पूरे हो गए हैं। कभी-कभी तकलीफ बहुत ज्यादा बढ़ जाती है। करवट लो तो दर्द होता है। सफीक कहते हैं कि, उन्हें रिकवर होने में सालभर का समय लगा था। उन्होंने फिर से महेंद्र कर्मा के ही घर में ड्यूटी जॉइन की। फिलहाल वर्तमान में वे रायपुर निवास में ड्यूटी कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि, इस परिवार से मेरा खास नाता है। मरते दम तक महेंद्र कर्मा के परिवार की सेवा करूंगा।