Acn18. Com.25 जनवरी को हर साल राष्ट्रीय मतदाता दिवस मनाया जाता है और अगला दिन 26 जनवरी है भारत का पावन गणतंत्र-दिवस। यह दिन हमारे संविधान, हमारे अधिकारों और लोकतंत्र की जीत का प्रतीक है। लेकिन क्या ईवीएम जैसे विवादास्पद उपकरणों का उपयोग गणतंत्र की भावना के अनुरूप है? *अगर ईवीएम दागदार है, यदि यह सभी पार्टियों को समान अवसर नहीं देती, और इसका दुरुपयोग संभव है, तो क्या यह संविधान और लोकतंत्र दोनों के साथ विश्वासघात नहीं है?*
गणतंत्र दिवस हमें याद दिलाता है कि लोकतंत्र केवल एक प्रक्रिया नहीं, बल्कि एक विश्वास है। “लोकतंत्र जनता का, जनता के द्वारा और जनता के लिए शासन है।” लेकिन जब चुनाव प्रक्रिया पर जनता का भरोसा डगमगाने लगे, तो गणतंत्र केवल कागजों पर सीमित होकर रह जाएगा।
*ईवीएम और लोकतंत्र का पतन: गणतंत्र पर गहराता संकट :* गणतंत्र दिवस पर झंडा फहराते हुए हम संविधान की शपथ लेते हैं, जिसमें प्रत्येक नागरिक को समान अधिकार और समान अवसर देने की गारंटी है। लेकिन ईवीएम की निष्पक्षता पर सवाल उठने से यह शपथ खोखली हो सकती है।
• क्या ईवीएम का उपयोग उस समानता की भावना का उल्लंघन नहीं करता, जो संविधान में निहित है?
• अगर एक राजनीतिक दल या व्यक्ति ईवीएम के माध्यम से चुनावी प्रक्रिया में हस्तक्षेप कर सकता है, तो इसका सीधा अर्थ है कि गणतंत्र भी दूषित हो रहा है।
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*गणतंत्र और चुनाव: क्या खो रहा है लोकतंत्र का सार?* : मतदाता दिवस और गणतंत्र दिवस के अवसर पर प्रत्येक मतदाता को
यह सोचना चाहिए कि क्या ईवीएम हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत कर रही है या इसे कमजोर बना रही है। जब “संदेह का लाभ” ईवीएम जैसी तकनीक को दिया जाता है, तो यह लोकतंत्र के प्रति जनता के विश्वास को कम कर देता है।
जरा सोचिए, अगर चुनाव निष्पक्ष नहीं होंगे, तो जनता की आवाज कहां जाएगी? और अगर जनता की आवाज दबा दी गई, तो गणतंत्र केवल नाम का रह जाएगा।
*ईवीएम पर सवालों की बौछार :*
ईवीएम को भारत में 2000 के दशक की शुरुआत में अपनाया गया। इसके समर्थकों ने इसे तेज़, सटीक और भ्रष्टाचार मुक्त प्रक्रिया का प्रतीक बताया। परंतु, “दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है” वाली जनता ने जल्द ही इसके खामियों को पहचानना शुरू कर दिया।
• वर्ष 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव हो या 2019 का लोकसभा चुनाव, हर बार विपक्ष ने ईवीएम की निष्पक्षता पर सवाल उठाए।
• 2019 में, लगभग 21 विपक्षी दलों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर 50% वोटों का वीवीपैट से सत्यापन कराने की मांग की। लेकिन मांग आंशिक रूप से स्वीकार हुई और सिर्फ 5% वीवीपैट की गिनती हुई।
• इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर डेमोक्रेसी एंड इलेक्शन असिस्टेंस (IDEA) के अनुसार, *अमेरिका, जर्मनी, नीदरलैंड, आयरलैंड* जैसे देशों ने ईवीएम के तकनीकी खामियों और चुनावी पारदर्शिता के लिए इसे त्याग दिया।
*“टेक्नोलॉजी जितनी चमत्कारी होती है, उतनी ही खतरनाक भी।*
लोकतंत्र को बचाने के लिए पारदर्शिता सर्वोपरि है।”
( जॉन एडम्स, अमेरिकी चुनाव विशेषज्ञ)
*दाल में काला या पूरी दाल ही काली? :*
राजनीतिक विश्लेषकों ने पिछले कुछ वर्षों के चुनाव परिणामों पर नजर डालते हुए पाया कि अक्सर ईवीएम के नतीजे जमीनी हकीकत से मेल नहीं खाते।
• उदाहरण के तौर पर, बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में कई सीटों पर ईवीएम के वोट और मतदान केंद्र पर मौजूद वोटरों की संख्या में विसंगति पाई गई।
• पश्चिम बंगाल के 2021 चुनाव में भी कई बार यह दावा किया गया कि ईवीएम में छेड़छाड़ की संभावना थी।
• 2024 के छत्तीसगढ़,मध्य प्रदेश हरियाणा के चुनावों के अप्रत्याशित नतीजों से इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) को लेकर संदेहों का साया गहराता जा रहा है।
कहावत है, “चोर की दाढ़ी में तिनका।” यदि ईवीएम इतनी ही भरोसेमंद है, तो सरकार और चुनाव आयोग हर बार पारदर्शिता की मांग से क्यों बचते हैं?
*बैलेट का स्वर्णिम युग :* बैलेट पेपर से मतदान प्रणाली को पुराने समय की बात कहकर नकारा नहीं जा सकता। यह न केवल सरल और पारदर्शी है, बल्कि जनता का विश्वास भी इस पर अधिक है।
• 1967 का चुनाव, जिसमें कांग्रेस पार्टी की हार ने भारत में राजनीतिक बदलाव का बीज बोया, बैलेट पेपर के जरिए ही हुआ था।
• 1977 में जनता पार्टी की ऐतिहासिक जीत और 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए चुनाव में भी बैलेट प्रणाली ने जनता के मन की सच्ची तस्वीर पेश की।
*बैलेट पेपर से चुनाव कराने के फायदे :*
*• पारदर्शिता और विश्वास:* बैलेट पेपर का हर वोट कागज पर होता है, जिसे दोबारा गिनने की प्रक्रिया में आसानी होती है।
*• तकनीकी छेड़छाड़ की संभावना शून्य:* ईवीएम की तरह बैलेट पेपर हैक नहीं हो सकता।
*• जनता की संतुष्टि:* “आम के आम, गुठलियों के दाम” वाली बात बैलेट पर लागू होती है। इसमें नतीजे पारदर्शी होते हैं और जनता का भरोसा कायम रहता है।
*• गांव-कस्बों के लिए सरल प्रक्रिया:* तकनीकी जटिलताओं से दूर बैलेट प्रणाली ग्रामीण और अशिक्षित जनता के लिए अधिक अनुकूल है।
*अंतरराष्ट्रीय अनुभव क्या कहते हैं :* जर्मनी की संवैधानिक अदालत ने 2009 में ईवीएम को असंवैधानिक करार देते हुए बैलेट पेपर की वापसी का आदेश दिया। नीदरलैंड ने 2007 में ईवीएम को यह कहते हुए त्याग दिया कि यह चुनावी प्रक्रिया की पारदर्शिता और विश्वसनीयता को कमजोर करता है।
*“यदि जनता को मतदान प्रक्रिया पर भरोसा नहीं है, तो लोकतंत्र की जड़ें खोखली हो जाती हैं।”*
— एंजेला मर्केल, पूर्व जर्मन चांसलर
हमारे देश में, “बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे?” का सवाल हर बार खड़ा होता है। जब विकसित देश ईवीएम को त्यागकर पारदर्शिता की राह पर लौट सकते हैं, तो भारत क्यों नहीं?
क्या हमारा लोकतंत्र इतना कमजोर है कि तकनीक के बिना नहीं चल सकता? या फिर “नाच न जाने आंगन टेढ़ा” वाली कहावत यहां लागू होती है?
आज जब भारत में मतदान का दिन है, हमें इस बात पर विचार करना चाहिए कि क्या हम अपनी लोकतांत्रिक नींव को और मजबूत कर सकते हैं? ईवीएम ने समय बचाया है, लेकिन समय के साथ जनता का भरोसा खो दिया है। सवाल यह भी उठता है कि क्या ईवीएम लोकतंत्र के प्रहरी हैं या इसके भक्षक ?
इसलिए अब समय है कि हम “सुधर जाओ या बदल जाओ” की नीति अपनाएं और ईवीएम की जगह बैलेट पेपर को लाकर लोकतंत्र और गणतंत्र दोनों को मजबूत करें। याद रखें, *गणतंत्र तभी सुरक्षित रहेगा जब चुनाव प्रक्रिया पर हर नागरिक को गर्व और भरोसा होगा।*
“सांच को आंच नहीं” की राह पर लौटकर बैलेट पेपर से चुनाव न केवल हमारे लोकतंत्र को पारदर्शी बनाएंगे, बल्कि जनता के विश्वास को भी पुनर्जीवित करेंगे। यह कहना गलत नहीं होगा कि ईवीएम से बैलेट की ओर लौटना ही लोकतंत्र की असली जीत होगी। हमें ध्यान रखना होगा कि,गणतंत्र दिवस केवल एक उत्सव नहीं है, यह अपने लोकतंत्र को बचाने का प्रण भी है। अगर ईवीएम पर सवाल उठते रहेंगे और इसे सुधारने के बजाय नजरअंदाज किया जाएगा, तो हमारा गणतंत्र खतरे में पड़ जाएगा।