जब हमारे सामने हमारी ही बुराई होती है, उस समय हमारे धैर्य की परीक्षा होती है। अपनी बुराई सुनकर अधिकतर लोग गुस्सा हो जाते हैं, लड़ाई करने लगते हैं, लेकिन ऐसा नहीं करना चाहिए। आलोचना सुनकर उन बातों को सहन कर लेंगे तो कई परेशानियों से बच सकते हैं। ये बात स्वामी विवेकानंद के एक किस्से से समझ सकते हैं।
एक दिन रामकृष्ण परमहंस के शिष्य स्वामी विवेकानंद ट्रेन के फर्स्ट क्लास में बैठे हुए थे। उस समय में ट्रेन के फर्स्ट क्लास में सफर करना बहुत महंगा था। सामान्य लोग उस डिब्बे बैठ नहीं पाते थे। स्वामी जी का पहनावा भगवा यानी साधु वेश था। यात्रा के बीच में दो अंग्रेज उनके पास आकर बैठे।
दोनों अंग्रेज ट्रेन के फर्स्ट क्लास में एक साधु को देखकर हैरान थे। उन्होंने सोचा कि साधु पढ़े-लिखे नहीं होते हैं, ये हमारी भाषा अंग्रेजी नहीं जानता होगा।
दोनों अंग्रेज साधु को देखकर इंग्लिश में बुराई करने लगे। दोनों बाते कर रहे थे कि साधु धरती पर बोझ की तरह हैं। दूसरों के पैसों से ट्रेन के फर्स्ट क्लास में सफर करते हैं।
बहुत समय तक दोनों अंग्रेज स्वामी जी की बुराई किए जा रहे थे। स्वामी जी अंग्रेजी समझते थे और पूरी बातें भी समझ रहे थे, लेकिन उन्होंने अंग्रेजों की आलोचनाओं पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, चुपचाप रहे।
कुछ समय बाद उस डिब्बे में टिकिट चेकर आया। जब वह स्वामी जी के पास पहुंचा तो उन्होंने उससे अंग्रेजी में बातें की। ये देखकर दोनों अंग्रेज और ज्यादा हैरान हो गए।
दोनों अंग्रेजों को अपनी गलती का अहसास हो गया। दोनों अंग्रेजों ने स्वामी जी से मॉफी मांगी और कहा कि आप अंग्रेजी जानते हैं और हम आपके सामने लगातार आपकी बुराई कर रहे थे, फिर भी आप चुप थे। आपने हमें जवाब क्यों नहीं दिया?
स्वामी जी बोले कि आप जैसे लोगों की आलोचनात्मक बातों की वजह से ही मेरी सहनशक्ति निखरती है। मैं किसी भी स्थिति में मेरा धैर्य नहीं छोड़ सकता। आपके विचार आपने प्रकट किए और मैंने उन बातों को सहन करने का निर्णय लिया। अगर मैं गुस्सा करता तो मेरा ही नुकसान होता। विवाद बढ़ता तो और भी ज्यादा दिक्कतें हो सकती थीं, इसलिए मैं चुप था।
स्वामी जी की सीख
इस किस्से में स्वामी ने हमें सीख दी है कि हमारी सहनशक्ति और धैर्य की परीक्षा उस समय होती है, जब हमारे सामने कोई हमारी बुराई करता है। अगर हम उस स्थिति में शांत रहते हैं तो हम कई समस्याओं से बच सकते हैं।